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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्र्यवसाना सप्तदातिकृति छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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    अद॑ब्धो दि॒विपृ॑थि॒व्यामु॒तासि॒ न त॑ आपुर्महि॒मान॑म॒न्तरि॑क्षे। अ॑दब्धेन॒ ब्रह्म॑णावावृधा॒नः स त्वं न॑ इन्द्र दि॒वि षञ्च्छर्म॑ यच्छ॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धावी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैः सु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अद॑ब्ध: । दि॒वि । पृ॒थि॒व्याम् । उ॒त । अ॒स‍ि॒ । न । ते॒ । आ॒पु:। म॒हि॒मान॑म् । अ॒न्तरि॑क्षे । अद॑ब्धेन । ब्रह्म॑णा । व॒वृ॒धा॒न: । स: । त्वम् । न॒: । इ॒न्द्र॒ । दि॒वि । सन् । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन्॥१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदब्धो दिविपृथिव्यामुतासि न त आपुर्महिमानमन्तरिक्षे। अदब्धेन ब्रह्मणावावृधानः स त्वं न इन्द्र दिवि षञ्च्छर्म यच्छ तवेद्विष्णो बहुधावीर्याणि। त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदब्ध: । दिवि । पृथिव्याम् । उत । अस‍ि । न । ते । आपु:। महिमानम् । अन्तरिक्षे । अदब्धेन । ब्रह्मणा । ववृधान: । स: । त्वम् । न: । इन्द्र । दिवि । सन् । शर्म । यच्छ । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन्॥१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (दिवि) सूर्य [प्रकाशवाले लोक] पर (उत) और (पृथिव्याम्) पृथिवी [प्रकाशरहित लोक]पर (अदब्धः) अखण्ड (असि) है, (ते) तेरी (महिमानम्) महिमा को (अन्तरिक्षे) आकाशमें उन [लोकों और लोकवासियों] ने (न आपुः) नहीं पाया। (अदब्धेन) अखण्ड (ब्रह्मणा) बढ़ते हुए वेदज्ञान से (वावृधानः) अत्यन्त बढ़ता हुआ और (दिवि)प्रत्येक व्यवहार में (सन्) वर्तमान, (सः त्वम्) सो तू (इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (नः) हमें (शर्म) सुख (यच्छ) दे, (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही.... [मन्त्र ६] ॥१२॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा संसार मेंबड़ों से बड़ा, अनन्त ज्ञानी और प्रत्येक व्यवहार में वर्तमान है, मनुष्य उसीजगदीश्वर की उपासना से वृद्धि करके सुख पावें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(अदब्धः) अखण्डः (दिवि)सूर्ये। प्रकाशमानलोके (पृथिव्याम्) भूमौ। प्रकाशरहितलोके (उत) अपि (असि) (न)निषेधे (ते) तव (आपुः) प्राप्तवन्तस्ते लोका लोकिनश्च (महिमानम्) महत्त्वम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (अदब्धे) अखण्डेन (ब्रह्मणा) प्रवृद्धेन वेदज्ञानेन (वावृधानः) भृशं वर्धमानः (सः) तादृशः (त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्र) (दिवि)व्यवहारे (सन्) वर्तमानः (शर्म) सुखम् (यच्छ) देहि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    अदब्धः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो। आप (दिवि) = द्युलोक में (अदब्धः) = अहिंसित सत्तावाले हैं, (उत) = और (पृथिव्याम्) = इस पृथिवीलोक पर भी अहिंसित सत्तावाले हैं। आप सर्वोपरि हैं, आपको कोई अतिक्रान्त नहीं कर सकता। (ते) = आपकी (महिमानं) = महिमा को (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्षलोक में भी (न आपु:) = व्याप्त नहीं कर सकते। आपकी महिमा अन्तरिक्ष से महान् है। वस्तुत: आप तीनों लोकों को अपने एकदेश में ही व्याप्त किये हुए हैं। २. (अदब्धेन) = अहिंसित-कभी नष्ट न होनेवाले (ब्रह्मणा) = इस वेदज्ञान से (वावृधान:) = हमारा वर्धन करते हुए (सः) = वे (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिए (दिवि सन्) = अपने प्रकाशमयरूप में होते हुए (शर्म यच्छ) = सुख दीजिए। आपके ही तो अनन्त पराक्रम हैं। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    प्रभु की महिमा त्रिलोकी में सर्वत्र व्याप्त है। वे प्रभु अहिंसित वेदज्ञान से हमारा वर्धन करते हुए हमारे लिए सुख प्राप्त कराएँ।

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    भाषार्थ

    हे परमैश्वर्यवान् परमेश्वर ! (दिवि) द्युलोक में (उत) और (पृथिव्याम्) पृथिवीलोक में तू (अदब्धः असि) किसी शक्ति द्वारा दबाया नहीं गया है, (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (ते) तेरी (महिमानम्) महिमा को (आपुः, न) विज्ञानी नहीं पा सके, जान सके। (अदब्धेन) न दबाएं गये अर्थात् शक्तिशाली अनश्वर (ब्रह्मणा) ब्रह्मप्रतिपादक-वेद द्वारा (वावृधानः) महिमा में बढ़ाया गया। (सः, त्वम्) वह तू (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् परमेश्वर ! (दिवि, सन्) हमारे मस्तिष्क के सहस्रार-चक्र में वर्तमान हुआ हुआ, (नः) हमें (शम) सुख और शान्ति (यच्छ) प्रदान कर। (तवेद् विष्णो)….. शेष अर्थ पूर्ववत् [मन्त्र ६]।

    टिप्पणी

    [शर्म = सुख और शान्ति। अथवा “शर्म = यच्छ" = अपना आश्रय प्रदान कर, अपनी शरण में ला । शर्म= शरणम् (निरु० १२।४।४६;९।३।३१;९।२।१८)। दिवि१ = मन्त्र ८,१०] [१. मन्त्र में "दिवि" पद दो वार पठित है। अतः ये दो भिन्नार्थक हैं,-द्युलोक तथा मस्तिष्क।]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! (दिवि) द्यौ लोक प्रकाशमय मोक्षलोक में और (पृथिव्याम्) पृथिवी लोक भी (उत) भी तू (अदब्धः असि) अहिंसित, अविनाशी, नित्य अमृत (असि) है। (अन्तरिक्षे) इस अन्तरिक्ष में भी ये जीवगण (ते महिमानम्) तेरे महान ऐश्वर्य को (न आयुः) प्राप्त नहीं कर सकते। तू (अदब्धेन) अहिंसित, नित्य अविनाशी (ब्रह्मणा) ब्रह्म के और वेदज्ञों के बल से (वावृधानः) बराबर बढ़ता हुआ (सन्) रहकर (दिवि) उस द्यौ लोक मोक्ष में (नः) हमें (त्वं) तू (शर्म यच्छ) सुख, शरण प्रदान कर। (तव इद्०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘दिवस्प’—इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, indomitable power and presence immanent in heaven, on earth and in the middle regions, no one has comprehended your grandeur and glory, celebrated and glorified more and ever higher exalted by the divine hymns of Veda, self-revealed in the highest state of divine consciousness in meditation, pray give us mental peace and spiritual bliss. O lord omnipresent, Vishnu, infinite are your powers and actions. Bless us with universal forms of perceptive organs and serviceable living beings. Pray establish me in the nectar joy of immortality in the highest regions of Divinity.

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    Translation

    You are unimpaired in the sky and on the earth as well. They could not attain your greatness in the midspace. Flourishing with unimpaired knowledge, O resplendent Lord, as such, may you grant us peace and comfort in heaven. O pervading Lord, manifold, indeed, are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.

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    Translation

    O Omniscient God, you are uninjured in heavenly region and on the earth; no ones can compete your grandeur in the middle region, O Almighty one, you endowed with exceeding power give us happiness in your splendid blessedness............ pervasiveness.

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    Translation

    O God, Thou art eternal in the region of emancipation and on earth. No sou! can reach Thy greatness in the air’s mid-region. Exalted by inviolate Vedic knowledge, as such, grant us happiness in salvation! Manifold are Thy great deeds, Thine, O God! Sate us with creatures of all forms and colors: set me in happiness in the loftiest position.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(अदब्धः) अखण्डः (दिवि)सूर्ये। प्रकाशमानलोके (पृथिव्याम्) भूमौ। प्रकाशरहितलोके (उत) अपि (असि) (न)निषेधे (ते) तव (आपुः) प्राप्तवन्तस्ते लोका लोकिनश्च (महिमानम्) महत्त्वम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (अदब्धे) अखण्डेन (ब्रह्मणा) प्रवृद्धेन वेदज्ञानेन (वावृधानः) भृशं वर्धमानः (सः) तादृशः (त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्र) (दिवि)व्यवहारे (सन्) वर्तमानः (शर्म) सुखम् (यच्छ) देहि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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