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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्र्यवसाना सप्तदात्यष्टि छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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    उदि॒ह्युदि॑हिसूर्य॒ वर्च॑सा मा॒भ्युदि॑हि। द्वि॒षंश्च॒ मह्यं॒ रध्य॑तु॒ मा चा॒हं द्वि॑ष॒तेर॑धं॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धा वी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैःसु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । इ॒हि॒ । उत् । इ॒हि॒ । सू॒र्य॒ । वर्च॑सा । मा॒ । अ॒भि॒ऽउदि॑हि । द्वि॒षन् । च॒ । मह्य॑म् । रध्य॑तु । मा । च॒ । अ॒हम् । द्वि॒ष॒ते । र॒ध॒म् । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡ण‍ि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदिह्युदिहिसूर्य वर्चसा माभ्युदिहि। द्विषंश्च मह्यं रध्यतु मा चाहं द्विषतेरधं तवेद्विष्णो बहुधा वीर्याणि। त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैःसुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । इहि । उत् । इहि । सूर्य । वर्चसा । मा । अभिऽउदिहि । द्विषन् । च । मह्यम् । रध्यतु । मा । च । अहम् । द्विषते । रधम् । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याण‍ि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन् ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य ! [सबके चलानेवाले परमेश्वर] (उत् इहि) तू उदय हो, (उत् इहि) तू उदय हो, (वर्चसा)प्रताप के साथ (मा) मुझ पर (अभ्युदिहि) उदय हो−(द्विषन्) वैर करता हुआ [शत्रु] (च) अवश्य (मह्यम् रध्यतु) मेरे वश में हो जावे, (च) और (अहम्) मैं (द्विषते)वैर करते हुए के (मा रधम्) वश में न पड़ूँ (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापकपरमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही (वीर्याणि) वीर कर्म [पराक्रम] (बहुधा) अनेक प्रकारहैं। (त्वम्) तू (नः) हमें (विश्वरूपैः) सब रूपवाले (पशुभिः) प्राणियों से (पृणीहि) भरपूर कर, (मा) मुझे (परमे) सबसे ऊँचे (व्योमन्) विशेष रक्षा पद में (सुधायाम्) पूरी पोषण शक्ति के बीच (धेहि) रख ॥६॥

    भावार्थ

    हे वीर विद्वानो ! उसमहाबली सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर को सर्वव्यापक साक्षात् करके सबका उपकार करो ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(उदिहि) उदितो भव (उदिहि) वीप्सायां द्विर्वचनम् (सूर्य) राजसूयसूर्य०। पा०३।१।११४। सरतेः सुवतेर्वा क्यप्। हे सर्वव्यापक सर्वप्रेरक परमेश्वर (वर्चसा)प्रतापेन (मा) माम् (अभ्युदिहि) अभिलक्ष्योदितो भव (द्विषन्) वैरयन्, शत्रुः (च)निश्चयेन (मह्यम्) मदर्थम् (रध्यतु) रध हिंसासंराद्ध्योः-श्यन् दिवादित्वात्।रध्यतिर्वशगमनेऽपिदृश्यते-निरु० १०।४०। वशं प्राप्नोतु (च) समुच्चये (अहम्)धार्मिकः (द्विषते) द्वेषं कुर्वते शत्रवे (मा रधम्) वशं न प्राप्नुयाम् (तव)त्वदीयानि (इत्) एव (विष्णो) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (वीर्याणि) वीरकर्माणि (त्वम्) हे परमेश्वर (नः) अस्मान् (पृणीहि) पूरय (पशुभिः) प्राणिभिः (विश्वरूपैः) नानास्वरूपैः (सुधायाम्) सु+डुधाञ् धारणपोषणयोः-अङ्, टाप्। अतिशयेनपोषणशक्तौ (मा) माम् (धेहि) धारय (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) सर्वधातुभ्योमनिन्। उ० ४।१४५। वि+अव रक्षणे-मनिन्, विभक्तिलोपः। व्योमन्=व्यवने-निरु०११।४०। विशेषरक्षापदे ॥

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    विषय

    सुधा व परम व्योम में धारण

    पदार्थ

    १. हे (सूर्य) = [सरते: सुवते] सबको गति देनेवाले व सबको प्रेरणा देनेवाले प्रभो! (उदिहि) = आप हमारे हृदयाकाश में उदित होइए। हम हृदयों में आपके प्रकाश को देखें। (वर्चसा मा अभ्युदिहि उदिहि) = वर्चस के हेतु से आप मेरी ओर उदित होइए। हृदय में आपका प्रादुर्भाव मुझे वर्चस्वी बनाएगा (च) = और आपके प्रादुर्भाव से (द्विषन्) = द्वेष करता हुआ शत्रु (मह्यं रथ्यतु) = मेरे लिए वशीभूत हो जाए (च) = और (अहम्) = मैं (द्विषते मा रधम्) = वैर करनेवाले के वश में न हो जाऊँ। २. हे (विष्णो) = सर्वव्यापक प्रभो। (तव इत्) = आपके ही ये (बहुधा वीर्याणि) = नानाप्रकार के पराक्रम हैं। ब्रह्माण्ड में सूर्य आदि पिण्डों के निर्माण व धारणरूप एवं शक्तिशाली कर्म आपके ही हैं। हे प्रभो! (त्वम्) = आप (नः) = हमें (विश्वरूपैः पशुभिः) = इन नानारूपवाले पशुओं से (पृणीहि) = पूरित कीजिए। गवादि पशु दूध आदि देकर हमारे पालन का साधन बनें। हे प्रभो। आप (मा) = मुझे (सुधायाम्) = [सुधा] उत्तम भरण-पोषण करनेवाली अमृतरूप शक्ति में तथा (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट [विशेषेण अवति] रक्षण-स्थान में-हृदयाकाश में (धेहि) = स्थापित कीजिए। मैं मन को इधर उधर भटकने देने की अपेक्षा हृदय में मन को निरुद्ध करूँ।

    भावार्थ

    मेरे हृदय में प्रभु के प्रकाश का प्रादुर्भाव हो। मैं शत्रुओं को वशीभूत करनेवाला बनूं। ब्रह्माण्ड में सर्वत्र प्रभु के शक्तिशाली कर्मों को देखू । प्रभु मुझे आत्मधारण शक्ति दें तथा मन को हृदयाकाश में सन्निरुद्ध कर सकने का सामर्थ्य दें। ७-प्रभुरूप सूर्य मेरे हृदयाकाश में उदित हों। मुझे वर्चस्वी बनाने के लिए वे मुझे प्राप्त हों। हे प्रभो! आप (यान् च पश्यामि) = जिन मनुष्यों को मैं देखता हूँ (च) = और (यान् न) = जिनको नहीं देखता, (तेषु) = उन सबमें (मा) = मुझे (सुमतिम्) = कल्याणी मतिवाला (कृधि) = कीजिए। मैं सबके कल्याण का ही चिन्तन करूँ-किसी के अशुभ को सोचनेवाला न बनें। २.हे प्रभो! आपके अनेक शक्तिशाली कर्म हैं। शेष पूर्ववत्। भावार्थ-प्रभु के प्रकाश को देखता हुआ, प्रभु के वर्चस् को प्रास करता हुआ मैं सबके प्रति सुमतिवाला बनूं। प्रभु के अनन्त पराक्रम हैं। वे हमें गवादि पशुओं द्वारा दूध आदि पदार्थों को प्राप्त करके पालित करते हैं। वे हमें 'सुधा व परमव्योम' में स्थापित करते हैं।

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    भाषार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य ! हे सर्वप्रेरक ज्योतिर्मय ! (उदिहि) उदित हो [मेरे हृदय में], (उदिहि) अवश्य उदित हो; (वर्चसा) निज ज्योति के साथ (मा अभि) मेरे संमुख (उदिहि) उदित हो। (द्विषन् च) तथा द्वेष करता हुआ कामादि शत्रु (मह्यम्) मेरे (रध्यतु) वश में हो जाय, (अहम्, च) और मैं (द्विषते) द्वेष करते हुये कामादि शत्रु के (रधम्, मा) वशे में न होऊ (विष्णो) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (तव, इद्) तेरे ही (बहुधा) बहुविध (वीर्याणि) सामर्थ्य हैं। (त्वम्) तू (नः) हमारी (पृणीहि) पालना कर (विश्वरूपैः) विश्व को निरूपित करने वाले (पशुभिः) इन्द्रिय-पशुओं द्वारा हे परमेश्वर ! (सुधायाम्)१ उत्तम स्थिति तथा आध्यात्मिक सुपुष्टि में, और (परमे व्योमन्) निज-परम सुरक्षक स्वरूप में (मा) मुझे (धेहि) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    [सूर्य = परमेश्वर को सूर्य भी कहा है। यथा "सोऽर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेवः", "सो अग्निः स उ सूर्यः स उ एव महायमः" (अथर्व० १३।अनु० ४।पर्या० १। मन्त्र ४, ५)। मन्त्र में मुख्यरूप से परमेश्वर का, तथा गौणरूप से प्राकृतिक सूर्य का भी वर्णन हुआ है। रध्यतु = रध्यतिर्वशगमने (निरु० ६।६।३२)। विष्णो = विष्लृ व्याप्तौ। पशुभिः = पश्यतीति पशुः। इन्द्रियां संसार को देखतीं और उस का दर्शन कराती हैं। इन्द्रियों को शरीर-रथ के "हय" अर्थात् अश्व भी कहा है, "इन्द्रियाणि हयानाहुः, विषयान् तेषु गोचरान्" (कठ० अ० २, बल्ली ३); इस प्रमाण में ऐन्द्रियक-विषयों को "गोचर" भी कहा है, अर्थात् गोरूपी इन्द्रियाँ जिन में विचरती हैं। अतः इन्द्रियों को "गावः" भी कहते हैं। जो इन्द्रियां मनुष्य को विषयों की ओर प्रेरित करती हैं, वे ही परमेश्वर की कृपा से सात्त्विक बन कर मनुष्य की रक्षा और पालन करने लगती हैं। सुधा = सु+धा (धारण पोषणयोः)। व्योमन् = वि + ओमन् (अव रक्षणे)। यथा "अवतेष्टिलोपश्च (उरणा० १।१४२); "ओम् = अव् मन् प्रत्ययस्य टि लोपो धातोरुपधावकारयोरूठ्, अवति रक्षादिकं करोतीति औम्” (महर्षि दयानन्द)] [१. अथवा निज परम सुरक्षक स्वरूप में विद्यमान आनन्दरसामृत में मुझे स्थापित कर। सुधा=अमृत।]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (सूर्य) सूर्य, सर्वप्रेरक प्राणात्मन् परमेश्वर ! (उत् इहिउत् इहि) तू उदय हो, उदय हो ! (वर्चसा) अपने तेज से (मां) मेरी तरफ को (उत् इहि) उदय हो, मेरे सामने प्रकट हो। (द्विषत् च) द्वेष करने हारा (मां) मेरे (रध्यतु) वश हो। और (अहम् च) मैं (द्विषते) शत्रु के (मा रधम्) वश न हो हूं। हे (विष्णो) विष्णो ! सर्वव्यापक प्रभो ! (तव इत्) तेरे ही (बहुधा वीर्याणि) बहुत प्रकार के वीर्य, बलसाध्य कार्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं। (त्वं) तू (नः) हमें (विश्वरूपैः) समस्त प्रकार के (पशुभिः) पशुओं से (पृणीहि) पूर्ण कर। तू (सुधायाम्) अपनी उत्तम भरण पोषण करने वाली अमृतरूप शक्ति में और (परमे व्योमन्) परम रक्षाकारी स्थान में (मा धेहि) मुझे स्थापित कर।

    टिप्पणी

    (स०) ‘स्वधायां नो धेहि’ इति पैप्प० सं०। ‘स्वधायाम्’ इति सायणाभिमतः। ‘उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह। द्विषन्तं मां रन्धयन् मोहं द्विषतो रधम्’ इति तै० ब्रा०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Rise, O Sun, rise with splendour, rise higher and higher and shine on me and for me. May the enemy, both external and internal, be subject to me. Let me never be subdued by the enemy. O Vishnu, lord omnipotent, infinite are your powers and exploits. Bless us with all forms of perceptive organs and serviceable living beings. Pray establish me in the nectar joy of immortality in the highest region of Divinity.

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    Translation

    Rise O sun , rise up for me with lustre. May my hater be subjugate to me, and may-I not be subjugated to my hater. O pervading Lord, manifold, indeed, are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.

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    Translation

    O most Inpellent God, please make me rise up, make me rise to accomplishments, make me rise up with the splendour bestowed upon me by you or you rise up to shine within me with your splendours may that which hates me be under my control; may I not be overpowered by that which hates me. O All-pervading Lord your activities are manifold, please oblige me with cattle of all forms and place me in bliss under your dignified pervasiveness.

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    Translation

    Rise up, O All-pervading God, rise Thou up; with strength and splendour rise on me. Let him who hates me be my thrall; Jet me not be a thrall to him. Manifold are Thy great deeds. Thine, O God! Sate us with creatures of all forms and colors: set me in happiness, in the loftiest position!

    Footnote

    Rise on me: Show thy splendor and might to me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(उदिहि) उदितो भव (उदिहि) वीप्सायां द्विर्वचनम् (सूर्य) राजसूयसूर्य०। पा०३।१।११४। सरतेः सुवतेर्वा क्यप्। हे सर्वव्यापक सर्वप्रेरक परमेश्वर (वर्चसा)प्रतापेन (मा) माम् (अभ्युदिहि) अभिलक्ष्योदितो भव (द्विषन्) वैरयन्, शत्रुः (च)निश्चयेन (मह्यम्) मदर्थम् (रध्यतु) रध हिंसासंराद्ध्योः-श्यन् दिवादित्वात्।रध्यतिर्वशगमनेऽपिदृश्यते-निरु० १०।४०। वशं प्राप्नोतु (च) समुच्चये (अहम्)धार्मिकः (द्विषते) द्वेषं कुर्वते शत्रवे (मा रधम्) वशं न प्राप्नुयाम् (तव)त्वदीयानि (इत्) एव (विष्णो) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (वीर्याणि) वीरकर्माणि (त्वम्) हे परमेश्वर (नः) अस्मान् (पृणीहि) पूरय (पशुभिः) प्राणिभिः (विश्वरूपैः) नानास्वरूपैः (सुधायाम्) सु+डुधाञ् धारणपोषणयोः-अङ्, टाप्। अतिशयेनपोषणशक्तौ (मा) माम् (धेहि) धारय (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) सर्वधातुभ्योमनिन्। उ० ४।१४५। वि+अव रक्षणे-मनिन्, विभक्तिलोपः। व्योमन्=व्यवने-निरु०११।४०। विशेषरक्षापदे ॥

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