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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    ऋषिः - आदित्य देवता - विराडत्यष्टि छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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    उद॑गाद॒यमा॑दि॒त्यो विश्वे॑न॒ तप॑सा स॒ह। स॒पत्ना॒न्मह्यं॑ र॒न्धय॒न्मा चा॒हंद्वि॑ष॒ते र॑धं॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धावी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहिप॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैः सु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒गा॒त् । अ॒यम् । आ॒दि॒त्य: । विश्वे॑न । तप॑सा । स॒ह । स॒ऽपत्ना॑न् । मह्य॑म् । र॒न्धय॑न् । मा । च॒ । अ॒हम् । द्वि॒ष॒ते । र॒ध॒म् । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे ।विऽओ॑मन् ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदगादयमादित्यो विश्वेन तपसा सह। सपत्नान्मह्यं रन्धयन्मा चाहंद्विषते रधं तवेद्विष्णो बहुधावीर्याणि। त्वं नः पृणीहिपशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अगात् । अयम् । आदित्य: । विश्वेन । तपसा । सह । सऽपत्नान् । मह्यम् । रन्धयन् । मा । च । अहम् । द्विषते । रधम् । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे ।विऽओमन् ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह (आदित्यः)आदित्यः [अखण्ड प्रभाववाला परमात्मा] (सपत्नान्) वैरियों को (मह्यं रन्धयन्) मेरेवश में करता हुआ, (विश्वेन) समस्त (तपसा सह) ऐश्वर्य के साथ (उत् अगात्) उदय हुआहै, (च) और (अहम्) मैं (द्विषते) वैर करते हुए के (मा रधम्) वश में न पड़ूँ, (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही (वीर्याणि)वीरकर्म [पराक्रम] (बहुधा) अनेक प्रकार हैं। (त्वम्) तू (नः) हमें (विश्वरूपैः)सब रूपवाले (पशुभिः) प्राणियों से (पृणीहि) भरपूर कर, (मा) मुझे (परमे) सबसेऊँचे (व्योमन्) विशेष रक्षापद में (सुधायाम्) पूरी पोषण शक्ति के बीच (धेहि) रख॥२४॥

    भावार्थ

    जो पुरुषार्थी मनुष्यपरमेश्वर को सब प्रकार अपना रक्षक मानता है, वह वैरियों को जीतता है और आप उनकेवश में नहीं पड़ता ॥२४॥यह मन्त्र (उदगादय... द्विषते रधम्) कुछ भेद से ऋग्वेदमें है १।५०।१३ ॥मन्त्र ६ और १९ से मन्त्र का मिलान करो ॥

    टिप्पणी

    २४−(उदगात्) उदितवान् (अयम्) सर्वव्यापकः (आदित्यः) अदिति-ण्य। अखण्डप्रभावः, परमेश्वरः (विश्वेन)समस्तेन (तपसा) ऐश्वर्येण (सह) (सपत्नान्) शत्रून् (मह्यं रन्धयन्) मम वशंप्रापयन्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६ ॥

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    विषय

    आदित्योदय

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह (आदित्य) = [आदानात्] सारे ब्रह्माण्ड को अपने में समा लेनेवाला प्रभु (उदगात्) = मेरे हृदयदेश में प्रादुर्भूत हुआ है। गतमन्त्र के अनुसार वासनान्धकार के विलीन होने पर प्रभु का प्रकाश दिखता ही है। यह प्रभु (विश्वेन) = सम्पूर्ण (तपसा सह) = दीप्ति के साथ यहाँ उदित हुआ है। प्रभु ही (सपत्नान्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं को (महा रन्धयन्) = मेरे लिए वशीभूत करते हैं। (च) = और प्रभु के अनुग्रह से (अहम्) = मैं (द्विषते मा रधम्) = इस कामरूप शत्रु के कभी वशीभूत न हो जाऊँ। हे विष्णो! आपके पराक्रम अनन्त हैं। शेष मन्त्र १९ के अनुसार।

    भावार्थ

    हदयदेश में प्रभुरूप सूर्य के उदित होते ही काम-क्रोध का अन्धकार नष्ट हो जाता है। प्रभु हमारे लिए इन सब शत्रुओं का विनाश कर देते हैं।

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    भाषार्थ

    (अयम्) यह (आदित्यः) आदित्य (विश्वेन) समग्र (तपसा, सह) ताप के साथ, (सपत्नान्) दिव्यभावों के शत्रु आसुरभावी को (मह्यम्) मेरे लिये (रन्धयन्) मेरे वश में करता हुआ होता है। (अहम् च) और मैं (द्विषते) द्वेष करते हुए आसुर-भाव के (रधम्, मा) वश में न होऊं। (तद् इद् विष्णो) ...... अर्थ पूर्ववत् [मन्त्र ६]

    टिप्पणी

    [मन्त्र में आदित्य द्वारा सूर्य और परमेश्वर दोनों का वर्णन है। आदित्य का अर्थ सूर्य तो प्रसिद्ध ही है। "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः" (यजु० ३२।१) में आदित्य आदि नाम ब्रह्म के भी कहे हैं। वैदिक साहित्य में आध्यात्मिक देवासुर-संग्राम प्रसिद्ध है। असुरों को मन्त्र में सपत्न कहा है। देवभावों और आसुरभावों का पति अर्थात् स्वामी "मन" है। सपत्न का अर्थ, एक पति के आश्रय में रहने वाले। ये दोनों प्रकार के भाव एक पति मन के आश्रय में रहते हैं, और मन की युद्ध भूमि में इन का संग्राम चलता रहता है। रात्रि को सोते हुए मानसिक भावों पर नियन्त्रण नहीं रहता। अतः अच्छे और बुरे स्वप्न आते रहते हैं। सूर्य के उदय हो जाने पर संयमी अपने भावों को संयम में रख सकता है। इसी लिये संयमी उदित-सूर्य के प्रति कहता है कि मेरे संयम के कारण दिन में द्वेषी-आसुरभाव मेरे वश में रहें और मैं उन के वश में न होऊं। इसी प्रकार संयमी के चित्त या आत्मा में जब आदित्य-वर्णी१ परमेश्वर का उज्वल प्रकाश उदित हो जाता है तब संयमी परमेश्वर से शक्ति की प्रार्थना करता है ताकि वह द्वेषी आसुर भावों के वश में न हो कर, उन्हें अपने वश रख सके। आदित्य में परमेश्वर का वास है। "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म,-" (यजु० ४०।१७)। अतः मन्त्र में आदित्य द्वारा सूर्य और आदित्य ब्रह्म,- इन दोनों का वर्णन हुआ है] [१. "वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात्" (यजु०-३१।१८) में परमेश्वर को "आदित्यवर्णम्" कहा है।]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (यम्) यह साक्षात् (आदित्यः) सूर्य (विश्वेन) समस्त (तपसा सह) तप के साथ (उत् अगात्) उदित होता है । वह (मह्यं) मेरे लिये (सपत्नान्) शत्रुओं को (रन्धयन्) मेरे वश करे और (अहम्) मैं (द्विषते) शत्रु के (मा रधम्) वश न होऊं। (तवेद् विष्णो०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘सहसासह’ (तृ०) ‘सपत्नम्’ (च०) ‘माच’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Risen is the Sun yonder with all the world’s glory, subjecting for me all rivals and adversaries to me, and I pray I may never be subject to adversaries, internal or external whatever. O Vishnu, self-refulgent lord omnipresent, infinite wondrous are your acts and powers. Pray bless us with senses and mind of universal perception and vision, and by those establish us in the nectar joy of immortality beyond mutability in the highest regions of Divinity.

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    Translation

    This Aditya (sun) has risen up with all the fiery ardour. subjugating my rivals to me; and may I not be subjugated to my hater. O pervading Lord, manifold, indeed, are your valours, May-you enrich us with cattle of all-sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.

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    Translation

    This Divinity who contains in Him the whole of universe, and who pervades the Aditi the material cause of the univers, manifest the world and His efficient power with all the heating force. May he make my foes (the passion, aversion jealousy etc) under my control and may I, by His grace, never be under influence of these foes. O All-pervading Divine Spirit, Your activities are manifold, please oblige me with cattle of all forms and place me in bliss under your dignified pervasiveness.

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    Translation

    With all His lustre this God hath manifested Himself in full glory, giving my foes into my hand. Let me not be my foeman’s prey. Manifold are Thy great deeds, Thine, O God. Sate us with creatures of all forms and colors: set me in happiness in the loftiest position.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(उदगात्) उदितवान् (अयम्) सर्वव्यापकः (आदित्यः) अदिति-ण्य। अखण्डप्रभावः, परमेश्वरः (विश्वेन)समस्तेन (तपसा) ऐश्वर्येण (सह) (सपत्नान्) शत्रून् (मह्यं रन्धयन्) मम वशंप्रापयन्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६ ॥

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