अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
ऋषिः - आदित्य
देवता - त्र्यवसाना सप्तदा प्रकृति
छन्दः - ब्रह्मा
सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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या त॑ इन्द्रत॒नूर॒प्सु या पृ॑थि॒व्यां यान्तर॒ग्नौ या त॑ इन्द्र॒ पव॑माने स्व॒र्विदि॑।यये॑न्द्र त॒न्वा॒न्तरि॑क्षं व्यापि॒थ तया॑ न इन्द्र त॒न्वा॒ शर्म॒ यच्छ॒तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धावी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैःसु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥
स्वर सहित पद पाठया । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । त॒नू: । अ॒प्ऽसु । या । पृ॒थि॒व्याम् । या । अ॒न्त: । अ॒ग्नौ । या । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । पव॑माने । स्व॒:ऽविदि॑ । यया॑ । इ॒न्द्र॒ । त॒न्वा᳡ । अ॒न्तरि॑क्षम् । वि॒ऽआ॒पि॒थ । तया॑ । न॒: । इ॒न्द्र॒ । त॒न्वा᳡ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
या त इन्द्रतनूरप्सु या पृथिव्यां यान्तरग्नौ या त इन्द्र पवमाने स्वर्विदि।ययेन्द्र तन्वान्तरिक्षं व्यापिथ तया न इन्द्र तन्वा शर्म यच्छतवेद्विष्णो बहुधावीर्याणि। त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैःसुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥
स्वर रहित पद पाठया । ते । इन्द्र । तनू: । अप्ऽसु । या । पृथिव्याम् । या । अन्त: । अग्नौ । या । ते । इन्द्र । पवमाने । स्व:ऽविदि । यया । इन्द्र । तन्वा । अन्तरिक्षम् । विऽआपिथ । तया । न: । इन्द्र । तन्वा । शर्म । यच्छ । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन् ॥१.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (या) जो (ते) तेरी (तनूः) उपकार शक्ति (अप्सु) जलमें और (या) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में है, (इन्द्र) हे इन्द्र ! (या) जो (ते)तेरी [उपकार शक्ति] (अग्नौ अन्तः) अग्नि के भीतर और (या) जो (स्वर्विदि) सुखपहुँचानेवाले (पवमाने) शुद्ध करनेवाले पवन में है। (इन्द्र) हे इन्द्र ! (यया)जिस (तन्वा) उपकार शक्ति से (अन्तरिक्षम्) आकाश में (व्यापिथ) तू व्यापा है, (इन्द्र) हे इन्द्र ! (तया) (तन्वा) उपकार शक्ति से (नः) हमें (शर्म) सुख (यच्छ)दे, (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही... [मन्त्र ६]॥१३॥
भावार्थ
परमात्मा ने पृथिवीआदि पाँच तत्त्वों में अनन्त उपकार शक्ति दी है, मनुष्य उन तत्त्वों के विज्ञानसे उपकार लेकर सुख प्राप्त करें ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(या) (ते) तव (तनूः) कृषिचमितनि०। उ०१।८०। तन उपकारे-ऊ प्रत्ययः। उपकारशक्तिः (अप्सु) उदकेषु (पृथिव्याम्) भूमौ (अन्तः) मध्ये (अग्नौ) (पवमाने) संशोधके पवने (स्वर्विदि) सुखप्रापके (यया) (तन्वा) उपकारशक्त्या (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (व्यापिथ) त्वं व्याप्तवानसि (तया) (नः) अस्मभ्यम् (तन्वा) उपकारशक्त्या (शर्म) सुखम् (यच्छ) देहि। अन्यत् पूर्ववत्॥
विषय
पञ्चभूतों की कल्याणरूपता
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (या) = जो (ते) = तेरी (तनूः) = मूर्ति, अर्थात् रस-रूप शक्ति (अप्सु) = जलों में है [रसोऽहमप्सु कौन्तेय], (या) = जो तेरी (पृथिव्याम्) = प्रभु की महिमा त्रिलोकी में सर्वत्र व्याप्त है। वे प्रभु अहिंसित वेदज्ञान से हमारा वर्धन करते हुए हमारे लिए सुख प्राप्त कराएँ। 'पुण्यगन्ध रूप' शक्ति पृथिवी में है, (वा) = जो तेरी (अग्रौ अन्त:) = तेजरूप शक्ति अग्नि में है [पुण्यो गन्धः पृथिव्याञ्च, तेजाश्चास्मि विभावसौं]। हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (या) = जो (ते) = तेरी शक्ति (पवमाने) = इस निरन्तर बहनेवाली व जीवन को पवित्र बनानेवाली वायु में है, जो वायु (स्व:विदि) = सुख को प्राप्त करानेवाली है और हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो। (यया तन्वा) = अपनी जिस मूर्ति व शक्ति से (अन्तरिक्षं व्यापिथ) = आपने सारे अन्तरिक्ष को व्याप्त किया हुआ है, हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (तया तन्वा) = उस स्वरूप व शक्ति से (नः शर्म यच्छ) = हमारे लिए कल्याण दीजिए। २. हे प्रभो! आपके ही निश्चय से अनन्त पराक्रम हैं। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
जल, पृथिवी, अग्नि, वायु व सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में प्रभु की जो शक्तियाँ हैं, वे हमारा कल्याण करनेवाली हों।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् परमेश्वर ! (या) जो (ते) तेरी (तनुः) विस्तृति (अप्सु) सामुद्रिक आदि जलों में, (या) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में, (या) जो (अग्नौ, अन्तः) अग्नि के भीतर (या) जो (ते) तेरी विस्तृति (स्वर्विदि) सुख प्राप्त कराने वाली (पवमाने) पवित्र वायु में है। (यया) जिस (तन्वा) विस्तृति द्वारा (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (व्यापिथ) तू व्याप्त है, (तथा) उस (तन्वा) विस्तृति या व्याप्ति द्वारा (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (नः) हमें (शर्म) सुख-शान्ति तथा निज शरण (यच्छ) प्रदान कर। (तवेद् विष्णो) .....शेष अर्थ पूर्ववत् [मन्त्र ६]
टिप्पणी
[तनूः = तनु विस्तारे। स्वर्विदि= स्वः (सुख) + विद् (लाभे)। पवमाने = पुत्र या पूङ पवने। मन्त्र में परमेश्वर से प्रार्थना की गई है कि आप जैसे जगत् के अन्य पदार्थों में व्याप्त हैं, वैसे हमारे शरीरों, मनों और आत्मायों में भी व्याप्त हैं। अपनी इस व्याप्ति द्वारा हमें सुख-शान्ति तथा निजाश्रय प्रदान कीजिये]
विषय
अभ्युदय की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! (ते) तेरी या जो (तनूः) निर्माणकारिणी, सर्जन शक्ति (अशु) जलों में, (या पृथिव्याम्) जो पृथिवी में, (या अग्नौ अन्तः) जो अग्नि के भीतर और हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (या) जो रचना शक्ति (ते) तेरी (स्वर्विदि) स्वः = परम उच्च आकाश तक पहुंचे हुए (पवमाने) आदित्य में है। और हे (इन्द्र) परमेश्वर (यया तन्वा) जिस विस्तृत सर्जनकारिणी वायु शक्ति से (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (व्यापिथ) व्याप्त करते हो। हे (इन्द्र) इन्द्र परमेश्वर ! (तया तन्वा) उस सर्जन शक्ति से (नः) हमें (शर्म) सुख (यच्छ) प्रदान कर। शिवकी अष्टमूर्त्ति, गीताप्रोक्त अष्टधा प्रकृति तथा ‘पुर्यष्टक’ का मूल यही मन्त्र है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Indra, lord omnipotent, your power and presence that is in the waters, that which is on earth, and that which is in the fire, your power and presence that blows in the wind, that purifies and shines in the light of heaven, the power and presence by which you pervade the firmament, by the same presence and power, lord omnipotent, give us peace and bliss. O lord omnipresent, Vishnu, infinite are your mighty acts and powers, bless us with universal forms of perceptive organs and serviceable living beings. Pray establish us in the nectar joy of immortality in the highest regions of Divinity.
Translation
O resplendent Lord, what form of yours is there in the waters, what on the earth, what within the fire; O resplendent Lord, what (form) of yours is there in the purifying wind (or soma), granter of bliss; with what from you pervade the midspace, thereby may you bestow happiness on us. O pervading Lord, manifold, indeed are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.
Translation
O Almighty God please grant pleasure with your that pervasiveness and power with which smear your substance in waters, which is earth, which is fire and which of yours is air rest in atmosphere, with which you pervade middle-region of Lord Almighty..... pervasiveness,
Translation
O God, grant us happiness, with that power of creation of thine that is on #earth, in fire, in waters, in purifying, ease-bestowing air, wherewith Thou hast pervaded in air’s mid-region. Manifold are Thy great deeds. Thine O God! Sate us with creatures of all forms and colors set me in happiness in the loftiest position.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(या) (ते) तव (तनूः) कृषिचमितनि०। उ०१।८०। तन उपकारे-ऊ प्रत्ययः। उपकारशक्तिः (अप्सु) उदकेषु (पृथिव्याम्) भूमौ (अन्तः) मध्ये (अग्नौ) (पवमाने) संशोधके पवने (स्वर्विदि) सुखप्रापके (यया) (तन्वा) उपकारशक्त्या (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (व्यापिथ) त्वं व्याप्तवानसि (तया) (नः) अस्मभ्यम् (तन्वा) उपकारशक्त्या (शर्म) सुखम् (यच्छ) देहि। अन्यत् पूर्ववत्॥
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