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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
    ऋषिः - आदित्य देवता - जगती छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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    प्र॒जाप॑ते॒रावृ॑तो॒ ब्रह्म॑णा॒ वर्म॑णा॒हं क॒श्यप॑स्य॒ ज्योति॑षा॒ वर्च॑सा च।ज॒रद॑ष्टिः कृ॒तवी॑र्यो॒ विहा॑याः स॒हस्रा॑युः॒ सुकृ॑तश्चरेयम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाऽप॑ते: । आऽवृ॑त: । ब्रह्म॑णा । वर्म॑णा । अ॒हम् । क॒श्यप॑स्य । ज्योति॑षा । वर्च॑सा । च॒ । ज॒रत्ऽअ॑ष्टि: । कृ॒तऽवी॑र्य: । विऽहा॑या: । स॒हस्र॑ऽआयु: । सुऽकृ॑त: । च॒रे॒य॒म् ॥१.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजापतेरावृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च।जरदष्टिः कृतवीर्यो विहायाः सहस्रायुः सुकृतश्चरेयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजाऽपते: । आऽवृत: । ब्रह्मणा । वर्मणा । अहम् । कश्यपस्य । ज्योतिषा । वर्चसा । च । जरत्ऽअष्टि: । कृतऽवीर्य: । विऽहाया: । सहस्रऽआयु: । सुऽकृत: । चरेयम् ॥१.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रजापतेः) प्रजापति [प्राणियों के रक्षक] और (कश्यपस्य) कश्यप [सर्वदर्शक परमेश्वर] के (ब्रह्मणा)वेदज्ञान से, (वर्मणा) आश्रय [वा रक्षा] से, (ज्योतिषा) ज्योति से (च) और (वर्चसा) प्रताप से (आवृतः) घेरा हुआ (अहम्) मैं, (जरदष्टिः) बड़ाई के साथप्रवृत्ति [वा भोजन] वाला, (कृतवीर्यः) पूरे पराक्रमवाला, (विहायाः) विविधउपायोंवाला, (सहस्रायुः) सहस्रों प्रकार से अन्नवाला और (सुकृतः) पुण्यकर्मवाला [होकर], (चरेयम्) चलता रहूँ ॥२७॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य हैकि सर्वपालक, सर्वदर्शक जगदीश्वर का अनेक प्रकार आश्रय लेकर और विविध प्रकारउपाय करके सुकर्मी होकर सदा आनन्द भोगें ॥२७॥

    टिप्पणी

    २७−(प्रजापतेः) प्राणिपालकस्य (आवृतः) समन्ताद् वेष्टितः (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (वर्मणा) आश्रयेण रक्षणेन (अहम्) उपासकः (कश्यपस्य) अ० २।३३।७। कृञादभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। दृशिर्प्रेक्षणे-वुन्, पश्यादेशः, आद्यन्ताक्षरविपर्ययेण सिद्धिः। पश्यकस्य।सर्वद्रष्टुः परमेश्वरस्य (ज्योतिषा) तेजसा (वर्चसा) प्रतापेन (च) (जरदष्टिः) अ०२।२८।५। जरतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। जीर्यतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। जॄस्तुतौ-अतृन्+अशू व्याप्तौ, अश भोजने वा-क्तिन्। जरता स्तुत्या सह अष्टिःकार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्य सः (कृतवीर्यः) पर्याप्तपराक्रमः (विहायाः)वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। ओहाङ् गतौ-असुन्, णिद्वद्भावाद् युगागमः।विविधगतियुक्तः। बहुप्रयत्नः (सहस्रायुः) आयुः, अन्ननाम-निघ० २।७। छन्दसीणः। उ०१।२। इण् गतौ-उण्। सहस्रप्रकारेणान्नयुक्तः। (सुकृतः) पुण्यकर्मा (चरेयम्)गच्छेयम् ॥

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    विषय

    ज्योतिषा वर्चसा च

    पदार्थ

    १. (अहम्) = मैं (प्रजापते:) = प्रजाओं के रक्षक उस प्रभु के (ब्रह्मणा वर्मणा) = ज्ञानरूप कवच से (आवृत:) = आवृत हुआ-हुआ (च) = और (कश्यपस्य) = [पश्यकस्य] उस सर्वद्रष्टा प्रभु की (ज्योतिषा वर्चसा) = ज्ञानज्योति व तेजस्विता से आवृत हुआ-हुआ (जरदष्टि:) = जीर्णावस्था तक उचित भोगों को भोगता हुआ, (कृतवीर्यः) = सम्पादित शक्तिवाला (विहाया:) = [अहोगतौ] विशिष्ट गतिवाला, (सहस्त्रायु:) = अपरिमित आयुष्यवाला, खूब ही दीर्घजीवनवाला, (सुकृतः) = पुण्य कर्मों के करनेवाला (चरेयम्) = इस पृथिवी पर विचरण करूँ।

    भावार्थ

    ज्ञानरूप कवच से आवृत हुआ-हुआ मैं ज्ञानी व वर्चस्वी बनें। दीर्घ व सुन्दर जीवन को प्राप्त करूँ। मस्तिष्क में ज्योतिवाला, शरीर में शक्तिवाला बनूं।

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    भाषार्थ

    (प्रजापतेः) प्रजाओं के रक्षक या स्वामी परमेश्वर के (ब्रह्मणा, वर्मणा) वेदरूपी कवच से, (च) और (कश्यपस्य) रोगकष्टापन्न व्यक्ति के रक्षक सूर्य के (ज्योतिषा) प्रकाश से, तथा (वर्चसा) तेज से (आवृतः) ढका हुआ अर्थात् सुरक्षित (अहम्) मैं (जरदष्टिः) जरावस्था को प्राप्त हुआ, (सहस्रायुः) दीर्घायुवाला, (कृतवीर्यः) वीरता के कर्मों से सम्पन्न (विहायाः) विशेष गति सम्पन्न, (सुकृतः) तथा उत्तम कर्म करता हुआ (चरेयम्) विचरुं।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मणा= ब्रह्म का अर्थ वेद भी होता है, तथा ब्रह्मवेद अर्थात् अथर्ववेद भी। अथर्व० १५।३।७ में “ब्रह्मोपबहर्णम्" द्वारा अथर्ववेद का अभिप्राय है। वर्मणा=कवच द्वारा। कवच शरीर की रक्षा करता है, और वेदोपदेश शरीर, इन्द्रियों और मन की रक्षा करते हैं। परोपकारिणी सभा, अजमेर के छपे अथर्ववेद में वर्मणा के स्थान में धर्मणा छपा है। इस दृष्टि में धर्मणा का अर्थ है वेद प्रतिपादित-धर्म द्वारा आवृत अर्थात् सुरक्षित कश्यपस्य=सूर्यस्य। कश्यः=कष्टे गच्छतीति (उणा० ४।२१३, म० दया०) + तं पाति; अर्थात् रोग के कष्ट को प्राप्त हुए का रक्षक सूर्य। कश्यप रोग शामक है; इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण है, -यक्ष्मं त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीवर्हेण विश्वञ्चं विवृहामसि१" (अथर्व० २।३३।७), अर्थात् हे रोगी! तेरो त्वचा में फेलै यक्ष्म रोग को, कश्यप के वीवर्ह अर्थात् विनष्ट करने के साधन भूत [रश्मियों द्वारा] हम प्रयत्न पूर्वक विगत करते हैं। वीवर्ह२= वर्ह हिंसायाम्। कश्यप अर्थात् सूर्य के प्रकाश३ और तेज अर्थात् उष्णता के द्वारा यक्ष्मरोग के निवारण का विधान मन्त्र में हुआ है। विहायाः = विविधगमनः सर्वत्राप्रतिबद्धगति (सायण)। सहस्रायुः= सहस्र + आयुः (जीवन काल; अन्न, निघं० २।७); आयवः मनुष्यनाम (निघं० २।३), अर्थात् दीर्घजीवी नानाविध अन्नों का भोक्ता, तथा हजारों मनुष्यों का उपकारी] [१. विवृहामसि = वि (विगत) + वृहामसि (वृहू उद्यमने), उद्यमनम् =प्रयत्नः। २. वीवर्ह = वि + वर्ह (परिभाषणहिंसाच्छादनेषु); वर्ह का अर्थ "हिंसा" यहां अभिप्रेत है। हिंसा अर्थात् विनाश। ३. देखो मन्त्र (२८)।। तथा "उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्रोचन् हन्तु रश्मिभिः। (अथर्व० २।३२।१) में कहा है कि उदय होता हुआ सूर्य क्रिमियों का हनन करे, तथा अस्त होता हुआ भी अपनी रश्मियों द्वारा हनन करे। वैदिक परिभाषा में क्रिमि का अभिप्राय है germs। उदित होते हुए तथा अस्त होते हुए सूर्य की चमकीली रश्मियों में रोगजनक क्रिमियों के हनन का विशेष सामथ्य है। तथा देखो मन्त्र (३०)।]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं (प्रजापतेः) प्रजापालक परमेश्वर के (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेदज्ञानरूप (वर्मणा) कवच से (आवृतः) आवृत, सुरक्षित और (कश्यपस्य) सर्वद्रष्टा, कश्यप सूर्य के (ज्योतिषा) तेज और (वर्चसा) प्रकाश से युक्त होकर (जरदष्टिः) वृद्धावस्था तक भोक्ता, दीर्घायु, (कृतवीर्यः) वीर्यवान् (विहायाः) विविध ज्ञान से सम्पन्न (सहस्रायुः) सहस्रों वर्षों का जीवन प्राप्त कर (सुकृतः) पुण्यकर्मा होकर (चरेयम्) विचरूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    I am covered and protected by the Vedic armour of Prajapati, father, protector and sustainer of his children of humanity. I am wrapped and protected by the light and lustre of Kashyapa, lord of wisdom and protection against all fears and ailments. I pray that I may live my life doing noble and vigorous acts worthy of the brave upto a ripe age of full hundred years.

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    Translation

    Covered with the armour of sacred knowledge of the Lord of creatures and with light and lustre of the all seeing Lord, may I move about upto the ripe old age, vigorous, energetic enjoying a thousand lives and engaged in pious deeds.

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    Translation

    May I (the devotee) encompassed by the knowledge of the Vedic speech whose revealer is Prajapati Himself, like the armour with the light and brilliance of Kashyapa, the Allvisio ned God, reaching senile state, succeeding in our ventures, equipped with knowledge. having attained the complete age and doing good for me and other walk and work through.

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    Translation

    Encompassed by God’s Vedic knowledge as shield, with the bright light and splendor of God, the seer, reaching old age, may I, made strong and learned, live through a thousand years doing noble deeds.

    Footnote

    God is spoken of as Prajapati, as he protects and nourishes his subjects, i.e,, all creatures. He is Kashayapa as He sees every thing.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(प्रजापतेः) प्राणिपालकस्य (आवृतः) समन्ताद् वेष्टितः (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (वर्मणा) आश्रयेण रक्षणेन (अहम्) उपासकः (कश्यपस्य) अ० २।३३।७। कृञादभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। दृशिर्प्रेक्षणे-वुन्, पश्यादेशः, आद्यन्ताक्षरविपर्ययेण सिद्धिः। पश्यकस्य।सर्वद्रष्टुः परमेश्वरस्य (ज्योतिषा) तेजसा (वर्चसा) प्रतापेन (च) (जरदष्टिः) अ०२।२८।५। जरतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। जीर्यतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। जॄस्तुतौ-अतृन्+अशू व्याप्तौ, अश भोजने वा-क्तिन्। जरता स्तुत्या सह अष्टिःकार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्य सः (कृतवीर्यः) पर्याप्तपराक्रमः (विहायाः)वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। ओहाङ् गतौ-असुन्, णिद्वद्भावाद् युगागमः।विविधगतियुक्तः। बहुप्रयत्नः (सहस्रायुः) आयुः, अन्ननाम-निघ० २।७। छन्दसीणः। उ०१।२। इण् गतौ-उण्। सहस्रप्रकारेणान्नयुक्तः। (सुकृतः) पुण्यकर्मा (चरेयम्)गच्छेयम् ॥

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