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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    अप॑श्यं गो॒पाम॑नि॒पद्य॑मान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्। स स॒ध्रीचीः॒ स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑श्यम् । गो॒पाम् । अ॒नि॒ऽपद्य॑मानाम् । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । प॒थिऽभि॑: । चर॑न्तम् । स: । स॒ध्रीची॑: । स: । विषू॑ची: । वसा॑न: । आ । व॒री॒व॒र्ति॒ । भुव॑नेषु । अ॒न्त: ॥१५.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपश्यम् । गोपाम् । अनिऽपद्यमानाम् । आ । च । परा । च । पथिऽभि: । चरन्तम् । स: । सध्रीची: । स: । विषूची: । वसान: । आ । वरीवर्ति । भुवनेषु । अन्त: ॥१५.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 11
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    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (गोपाम्) भूमि वा वाणी के रक्षक, (अनिपद्यमानम्) न गिरनेवाले [अचल], (पथिभिः) ज्ञानमार्गों से (आ चरन्तम्) समीप प्राप्त होते हुए (च) और (परा) दूर प्राप्त होते हुए (च) भी [परमेश्वर] को (अपश्यम्) मैंने देखा है। (सः) वह [परमेश्वर] (सध्रीचीः) साथ मिली हुई [दिशाओं] को और (सः) वही (विषूचीः) नाना प्रकार से वर्तमान [प्रजाओं] को (वसानः) ढकता हुआ (भुवनेषु अन्तः) लोकों के भीतर (आ) अच्छे प्रकार (वरीवर्ति) निरन्तर वर्तमान है ॥११॥

    भावार्थ

    योगी जन सर्वव्यापी अन्तर्यामी परमेश्वर को सब स्थानों में बाहिर और भीतर साक्षात् करके सदा धर्म में लगे रहते हैं ॥११॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।३१। और १०।१७७।३। तथा यजु० ३७।१७। तथा निरुक्त १४।३ ॥

    टिप्पणी

    ११−(अपश्यम्) अहं दृष्टवान् (गोपाम्) अ० ३।८।४। गां भूमिं वाचं वा पातीति तं परमेश्वरम् (अनिपद्यमानम्) पद गतौ-शानच्। नाधः पतन्तम्। अचलम् (आ चरन्तम्) समीपे प्राप्नुवन्तम् (च) (परा) पराचरन्तम्। दूरे प्राप्नुवन्तम् (च) (पथिभिः) ज्ञानमार्गैः (सः) परमेश्वरः (सध्रीचीः) अ० ६।८८।३। सहाञ्चनाः सह वर्तमाना दिशः (सः) (विषूचीः) अ० १।१९।१। विष्वञ्चनाः। नाना वर्तमानाः प्रजाः (वसानः) अ० ४।८।३। आच्छादयन् (आ) समन्तात् (वरीवर्ति) रीगृदुपधस्य च। पा० ७।४।९०। वृतु वर्तने-यङ्लुक्, रीक्। निरन्तरं वर्तते (भुवनेषु) लोकेषु (अन्तः) मध्ये ॥

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    विषय

    लोकहित के लिए शरीर-धारण

    पदार्थ

    १. (गोपाम्) = इन्द्रियों की रक्षा करनेवाले को (अनिपद्यमानम्) = फिर-फिर विविध योनियों में नीचे न गिरते हुए को (अपश्यम्) = मैंने देखा है। जितेन्द्रियता द्वारा मुक्त हुए-हुए इस पुरुष को आ च परा च-समीप और दूर-हमारी ओर आनेवाले व हमसे दूर जानेवाले (पथिभिः) = मार्गों से (चरन्तम्) = विचरण करते हुए को मैंने देखा है। जहाँ हम हैं, वहाँ भी आता है, और हमसे दूर अन्य लोक-लोकान्तरों में भी जाता है। २.(स:) = वह मुक्तात्मा लोकहित के लिए (सध्रीची:) = [सह अञ्चति] जिन शरीरों से हमारे साथ उठता-बैठता है, उन शरीरों को (वसान:) = धारण करने के स्वभाववाला होता है। इन शरीरों से हमें उपदेश देता हुआ अपने जन्म-धारण के उद्देश्य को पूरा करता है। (सः विषूची:) = वह चारों ओर विविध लोकों में जानेवाले शरीरों को भी धारण करता है। इसप्रकार यह समय-समय पर शरीर धारण करता हुआ (भुवनेषु अन्तः) = इन भुवनों में (आवरीवर्ति) = चारों ओर फिर-फिर आवर्तनवाला होता है। लोकहित के लिए जन्म लेनेवाले ये पुरुष ही 'अतिमानव' व महापुरुष हुआ करते हैं।

    भावार्थ

    पूर्ण जितेन्द्रिय पुरुष मुक्त हो जाता है। यह समय-समय पर शरीर धारण करके लोकहित के लिए भुवनों में विचरण करता है।

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    भाषार्थ

    (अनिपद्यमानम्) न नष्ट होते हुए अविनाशी, (गोपाम्) इन्द्रिय आदि के रक्षक, (आ च परा च) समीप के तथा दूर के (पथिभिः) मार्गों द्वारा (चरन्तम्) विचरते हुए जीवात्मा को (अपश्यम्) मैंने साक्षात् कर लिया है, देख लिया है। (सः) वह (सध्रीचीः) साथ-साथ चलने वाली, (सः) वह (विषूचीः) तथा विविध मार्गों में अर्थात् आड़े चलने वाली नस-नाड़ियों द्वारा (वसानः) आच्छादित होता रहता है, और (भुवनेषु अन्तः) भुवनों के भीतर (आ वरीवर्ति) बार-बार आता है।

    टिप्पणी

    [प्रकरणानुसार मन्त्र में जीवात्मा का वर्णन है, न सूर्य का और न परमेश्वर का। जीवात्मा के साक्षात् का अभिप्राय है समाधि द्वारा आत्मा और अनात्मा का विवेकज्ञान]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    I have seen and realised that universal protector of the world of nature and of the mother powers of life who, ever infallible and immaculate, is immanent and active over the nearest paths of existence and, pervading the centrifugal and centripetal forces of Prakrti, eternally rolls around in the worlds of the universe. (Note: This mantra can be interpreted with reference to the individual soul which is infallible and immaculate in the essence but not so in the existential state.)

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    Translation

    I have beheld the unwearied protector of the universe, the sun, travelling (spirally) upwards and downwards by various orbits; invested with aggregative and diffusive radiance, he revolves in the midst of the regions. (Also Rg. I.164.31)

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    Translation

    May I have a glance at the indestructible Lord of the sense organs (i.e. the individual soul) which ever walks through pathways of coming (birth) and departure (death). It traverses its path with its body and even without it and having covered itself with its actions (i.e. in accordance with its good and evil actions) it come (takes birth) again and again in the various worlds.

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    Translation

    I, a yogi, have visualized God, the Guardian of the universe, Who pervades the near and distant worlds and is Immortal. He, engulfing all the quarters and innumerable subjects is present within the worlds.

    Footnote

    See Rig, 1-164-31, 10-177-3; Yajur, 37-17.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(अपश्यम्) अहं दृष्टवान् (गोपाम्) अ० ३।८।४। गां भूमिं वाचं वा पातीति तं परमेश्वरम् (अनिपद्यमानम्) पद गतौ-शानच्। नाधः पतन्तम्। अचलम् (आ चरन्तम्) समीपे प्राप्नुवन्तम् (च) (परा) पराचरन्तम्। दूरे प्राप्नुवन्तम् (च) (पथिभिः) ज्ञानमार्गैः (सः) परमेश्वरः (सध्रीचीः) अ० ६।८८।३। सहाञ्चनाः सह वर्तमाना दिशः (सः) (विषूचीः) अ० १।१९।१। विष्वञ्चनाः। नाना वर्तमानाः प्रजाः (वसानः) अ० ४।८।३। आच्छादयन् (आ) समन्तात् (वरीवर्ति) रीगृदुपधस्य च। पा० ७।४।९०। वृतु वर्तने-यङ्लुक्, रीक्। निरन्तरं वर्तते (भुवनेषु) लोकेषु (अन्तः) मध्ये ॥

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