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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 15
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    न वि जा॑नामि॒ यदि॑वे॒दमस्मि॑ नि॒ण्यः संन॑द्धो॒ मन॑सा चरामि। य॒दा माग॑न्प्रथम॒जा ऋ॒तस्यादिद्वा॒चो अ॑श्नुवे भा॒गम॒स्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । वि । जा॒ना॒मि॒ । यत्ऽइ॑व । इ॒दम् । अस्मि॑ । नि॒ण्य: । सम्ऽन॑ध्द: । मन॑सा । च॒रा॒मि॒ । य॒दा । मा॒ । आ॒ऽअग॑न् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ । आत् । इत् । वा॒च: । अ॒श्नु॒वे॒ । भा॒गम् । अ॒स्या: ॥१५.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्यः संनद्धो मनसा चरामि। यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । वि । जानामि । यत्ऽइव । इदम् । अस्मि । निण्य: । सम्ऽनध्द: । मनसा । चरामि । यदा । मा । आऽअगन् । प्रथमऽजा: । ऋतस्य । आत् । इत् । वाच: । अश्नुवे । भागम् । अस्या: ॥१५.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 15
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    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्−इव) जो कुछ ही (इदम्) यह [कार्यरूप शरीर है, वही] (अस्मि) मैं हूँ, (न वि जानामि) मैं कुछ नहीं जानता, (निण्यः) गुप्त और (मनसा) मन से (सन्नद्धः) जकड़ा हुआ मैं (चरामि) विचरता हूँ। (यदा) जब (ऋतस्य) सत्य [स्वरूप परमात्मा] का (प्रथमजाः) प्रथम उत्पन्न [बोध] (मा) मुझको (आ-अगन्) आया है, (आत इत्) तभी (अस्याः) इस (वाचः) वाणी के (भागम्) सेवनीय परब्रह्म को (अश्नुवे) मैं पाता हूँ ॥१५॥

    भावार्थ

    अज्ञानी पुरुष मूढबुद्धि होकर शरीर आत्मा को अलग-अलग नहीं जानता। जब वह वेद द्वारा विद्या प्राप्त करता है तब शरीर, आत्मा और परमात्मा को जान लेता है ॥१५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।३७। और निरुक्त−७।३। और १४।२२। में भी है ॥

    टिप्पणी

    १५−(न) निषेधे (वि) विशेषेण (जानामि) वेद्मि (यत्−इव) यत् किञ्चिदेव (इदम्) दृश्यमानं शरीरम् (अस्मि) अविवेकि जनोऽहम् (निण्यः) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। निर्+णीञ् प्रापणे-यक्, टिलोपो रेफलोपश्च। निण्यं निर्णीतान्तर्हितनाम-निघ० ३।२५। अन्तर्हितः। मूढचित्तः (सन्नद्धः) सम्यग् बद्धो वेष्टितः (मनसा) अन्तःकरणेन (चरामि) गच्छामि (यदा) यस्मिन् काले (मा) माम् (आ-अनन्) अ० ६।११६।२। गमेर्लुङ्। आगमत् (प्रथमजाः) अ० ६।१२२।१। जनेर्विट्। प्रथमोत्पन्नो बोधः (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य परमात्मनः (आत्) अनन्तरम्। अव्यवधानेन (इत्) एव (वाचः) वाण्याः (अश्नुवे) प्राप्नोम (भागम्) भजनीयं पदं परब्रह्म (अस्याः) वेदविख्यातायाः ॥

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    विषय

    मनोबन्धन से मुक्ति

    पदार्थ

    १. (यदि वा इदम् अस्मि) = 'मैं यह हूँ या कुछ और हूँ' इसप्रकार ठीक-ठीक अपने ही रूप को (न विजानामि) = मैं नहीं जानता। न जानने का कारण यह है कि मैं (निण्य:) = अन्तर्हित हूँ ढका हुआ-सा हूँ। ढके हुए होने का कारण यह है कि (मनसा) = मन से (सन्नद्धः) = सम्बद्ध होकर (चरामि) = मैं यहाँ संसार में विचर रहा हूँ। मन ने मुझे बुरी तरह से बाँधा हुआ है। २. (यदा) = जब कभी प्रभुकृपा से, सत्सङ्ग में श्रवण आदि के क्रम से (मा) = मुझे (जस्तस्य) = सब सत्य विद्याओं का प्रकाश करनेवाली (प्रथमजा:) = सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों के हृदयों में प्रादुर्भूत हुई-हुई यह वेदवाणी (आगन्) = प्राप्त होती है, तब (आत् इत्) = उस समय अविलम्ब ही (अस्या:) = इस वेदवाणी से मैं (भागम्) = उस भजनीय आत्मज्ञान को (अश्नुवे) = प्राप्त कर लेता हूँ। वेदवाणी का सेवन मुझे सब व्यसनों से बचाकर मन की इस जकड़ से बचा लेता है।

     

    भावार्थ

    मन के वशीभूत हुआ-हुआ मैं आत्मस्वरूप को ही विस्मृत-सा कर बैठा था। अब वेदवाणी के सेवन से व्यसनों से ऊपर उठकर, अन्तर्मुखी वृत्तिवाला बनकर आत्मदर्शन के योग्य हुआ हूँ।

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    भाषार्थ

    (यद् इव) जिस प्रकार का (इदम्) यह (अस्मि) मैं हूं (न विजानामि) इस को मैं ठीक प्रकार से नहीं जानता। (निण्यः) निज स्वरूप से अन्तरित हुआ मैं (मनसा सन्नद्धः) मन द्वारा बन्धा हुआ (चरामि) विचरता हूं! (यदा) जब (ऋतस्य) सत्यज्ञान का (प्रथमजाः) प्रथम जनयिता परमेश्वर (मा) मुझे (आगत) प्राप्त होता है (आत् इत्) इस के पश्चात् ही, (अस्याः वाचः) इस वेदवाणी के (भागम्) फल को (अश्नुवे) मैं प्राप्त करता हूं, या इस वाणी का मैं भागी बनता हूँ। [निण्यम् अन्तर्हित नाम (निघं० ३-२५)]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    I do not know for sure what I am like or what this world is. Self-imposed, self-bound, I move around limited by mind and understanding. But when the first evolutes of Rtam, cosmic law and knowledge, and the revelations of this divine Word of truth bless me then I would realise my share of the knowledge of the reality of existence as it is.

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    Translation

    I distinguish not if I am this all, for I go perplexed and bound in mind: when the first-born (perceptions) of the Holy Law reached me, then of this speech I first obtained a portion (of the meaning): (Also Rg.I.164.37)

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    Translation

    I know not fully what I am in reality for I am placed Within and wander with fettered mind when I will be able to attain the primordial product of the eternal law, than and them only I will obtain the share of this Divine word.

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    Translation

    What thing I truly am I know not clearly: mysterious, fettered in re¬ solve and doubt. I pass the days of my life, reaping the fruit of my actions. When the first-born perceptions of the truth dawn on me, then I obtain a portion of this Vedic speech.

    Footnote

    See Rig, 1-164-37.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(न) निषेधे (वि) विशेषेण (जानामि) वेद्मि (यत्−इव) यत् किञ्चिदेव (इदम्) दृश्यमानं शरीरम् (अस्मि) अविवेकि जनोऽहम् (निण्यः) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। निर्+णीञ् प्रापणे-यक्, टिलोपो रेफलोपश्च। निण्यं निर्णीतान्तर्हितनाम-निघ० ३।२५। अन्तर्हितः। मूढचित्तः (सन्नद्धः) सम्यग् बद्धो वेष्टितः (मनसा) अन्तःकरणेन (चरामि) गच्छामि (यदा) यस्मिन् काले (मा) माम् (आ-अनन्) अ० ६।११६।२। गमेर्लुङ्। आगमत् (प्रथमजाः) अ० ६।१२२।१। जनेर्विट्। प्रथमोत्पन्नो बोधः (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य परमात्मनः (आत्) अनन्तरम्। अव्यवधानेन (इत्) एव (वाचः) वाण्याः (अश्नुवे) प्राप्नोम (भागम्) भजनीयं पदं परब्रह्म (अस्याः) वेदविख्यातायाः ॥

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