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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 24
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - चतुष्पदापुरस्कृतिभुरिगतिजगती सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    वि॒राड्वाग्वि॒राट्पृ॑थि॒वी वि॒राड॒न्तरि॑क्षं वि॒राट्प्र॒जाप॑तिः। वि॒राण्मृ॒त्युः सा॒ध्याना॑मधिरा॒जो ब॑भूव॒ तस्य॑ भू॒तं भव्यं॒ वशे॒ स मे॑ भू॒तं भव्यं॒ वशे॑ कृणोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽराट् । वाक् । वि॒ऽराट् । पृ॒थि॒वी । वि॒ऽराट् । अ॒न्तरि॑क्षम् । वि॒ऽराट् । प्र॒जाऽप॑ति: । वि॒ऽराट् । मृ॒त्यु: । सा॒ध्याना॑म् । अ॒धि॒ऽरा॒ज: । ब॒भू॒व॒ । तस्य॑ । भू॒तम् । भव्य॑म् । वशे॑ । स: । मे॒ । भू॒तम् । भव्य॑म् । वशे॑ । कृ॒णो॒तु॒॥१५.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विराड्वाग्विराट्पृथिवी विराडन्तरिक्षं विराट्प्रजापतिः। विराण्मृत्युः साध्यानामधिराजो बभूव तस्य भूतं भव्यं वशे स मे भूतं भव्यं वशे कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽराट् । वाक् । विऽराट् । पृथिवी । विऽराट् । अन्तरिक्षम् । विऽराट् । प्रजाऽपति: । विऽराट् । मृत्यु: । साध्यानाम् । अधिऽराज: । बभूव । तस्य । भूतम् । भव्यम् । वशे । स: । मे । भूतम् । भव्यम् । वशे । कृणोतु॥१५.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (विराट्) विराट् [विविध ऐश्वर्यवाला परमात्मा] (वाक्) वाक् [विद्यास्वरूप], (विराट्) विराट् (पृथिवी) पृथिवी [पृथिवीसमान फैला हुआ], (विराट्) विराट् (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [आकाशतुल्य व्यापक], (विराट्) विराट् (प्रजापतिः) प्रजापालक [सूर्यसमान है], (विराट्) विराट् [परमेश्वर], (मृत्युः) दुष्टों का मृत्यु और (साध्यानाम्) परोपकार साधनेवाले [साधु पुरुषों] का (अधिराजः) राजाधिराज (बभूव) हुआ है, (तस्य) उस [परमेश्वर] के (वशे) वश में (भूतम्) अतीतकाल और (भविष्यम्) भविष्यत् काल है (सः) वह (भूतम्) अतीतकाल और (भव्यम्) भविष्यत् काल को (मे) मेरे (वशे) वश में (कृणोतु) करे ॥२४॥

    भावार्थ

    सर्वशासक परमात्मा के ज्ञानपूर्वक सब मनुष्य भूतकाल के ज्ञान से दूरदर्शी होकर भविष्यत् का सुधार करें ॥२४॥ (विराट्) के लिये मिलान करें-अथर्व काण्ड ८ सूक्त १० ॥

    टिप्पणी

    २४−(विराट्) अ० ८।९।१। राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च−क्विप्। विविधैश्वर्यवान् परमात्मा (वाक्) विद्यारूपः (विराट्) (पृथिवी) पृथिवीवद् विस्तृतः (विराट्) (अन्तरिक्षम्) आकाशवद् व्यापकः (विराट्) (प्रजापतिः) सूर्यवत् प्रजापालकः (विराट्) (मृत्युः) दुष्टानां मारकः (साध्यानाम्) अ० ७।५।१। परोपकारसाधकानां साधूनाम् (अधिराजः) अधिपतिः (बभूव) (तस्य) परमेश्वरस्य (भूतम्) अतीतकालः (भव्यम्) भविष्यत्कालः (वशे) अधीनत्वे (सः) (मे) मम (भूतम्) (भव्यम्) (वशे) (कृणोतु) करोतु ॥

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    विषय

    विराट्

    पदार्थ

    १. वह (विराट्) = विशिष्ट दीसिवाला प्रभु ही (वाक्) = वाणी है। वही सृष्टि के आरम्भ में इस वेदज्ञान को देता है। (विराट् पृथिवी) = वे विराट् प्रभु ही पृथिवी हैं-सर्वाधार हैं अथवा सर्वत्र प्रथन-[विस्तार]-वाले हैं। (विराट अन्तरिक्षम) = वे प्रभु ही अन्तरिक्ष हैं-सबके अन्दर निवास करनेवाले हैं [अन्तः क्षि निवासे] विराट्-ये विराट् प्रभु ही प्रजापतिः-सब प्रजाओं का पालन करनेवाले हैं। २. (विराट् मुत्यु:) = ये विराट् प्रभु ही आचार्य [आचार्यों मृत्यु:] हैं, अथवा सबका अन्त करनेवाले हैं। ये विराट् प्रभु (साध्यानाम्) = पर-कार्यसाधक पुरुषों के (अधिराजः बभूव) = अधिराज हैं-सर्वाधिक पर कार्यसाधक है। यह (भूतं भव्यम्) = भूत व भविष्यत् सब (तस्य वशे) = उस विराट् प्रभु के ही वश में हैं। (सः) = वे प्रभु इस (भूतं भव्यम्) = भूत और भव्य को (मे वशे कृणोतु) = मेरे वश में करें।

    भावार्थ

    विराट् प्रभु की उपासना करता हुआ मैं भौ विराट् बनूं। भूत और भव्य को वश में करनेवाला होऊँ। मेरा भूत भी सुन्दर हो और भविष्य भी सुन्दर बने।

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    भाषार्थ

    (विराट्) "विविध जगत् का राजा" परमेश्वर (वाक्) वाक् (बभूव) हुआ है, (विराट् पृथिवी) विराट् पृथिवी हुआ है, (विराट् अन्तरिक्षम्) विराट् अन्तरिक्ष हुआ है, (विराट् प्रजापतिः) विराट् प्रजाओं का अधिपति सूर्य हुआ है। (विराट् मृत्युः) विराट् मृत्युरूप हो कर संहार करता है, वह (साध्यानाम्) साधना करने वालों का (अधिराजः) अधिराज हुआ है, (भूतम्, भव्यम्) भूत और भविष्यत् (तस्य वशे) उस के वश में हैं, (सः) वह (भूतम् भव्यम्) भूत और भविष्यत् को (मे वशे) मेरे वश मैं (कृणोतु) करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "विराट्" "पद पुलिङ्ग में हैं। इसलिये "तस्य" पद पुंलिङ्ग पठित है। मन्त्र में रूपकालंकार है, अतः तादात्म्य का वर्णन हुआ है। "मे वशे" - प्रार्थी प्रार्थना करता है कि विराट् उसे ऐसी शक्ति दे कि वह निज भूत और भविष्य का स्वयं यथेच्छ निर्माण करने वाला हो सके]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    Virat, the Infinite, through self-will and immanence, in the course of Nature’s evolution, became the Vak, universal speech. Virat is Prthivi, the earth. Virat is Antariksha, the middle region. Virat is Prajapati, universal father and guardian of the world of creation. Virat is death and involution. Virat became the supreme ruler of superior beings and of all that is possible and feasible. All that has been, all that is, and all that shall ever be is under the rule and law of Virat. May Virat give me the knowledge and competence to control my present, past and future.

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    Translation

    Viraj is speech, Viraj the wide earth, Viraj the midspace, and Viraj is the Lord of creatures. Viraj is death, the overlord of Sadhyas (souls seeking perfection). He has full control over what was and what will be. May He put what was, and will be, under my control.

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    Translation

    Virat is speech, virat is the earth, virat is the middle region, virat is Prajapati. the time (Samvassara) and Virat is death. This Imperial Majesty Sadhvas and past and future are under its control. Let this make me master over what has been and what shall be.

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    Translation

    God is the Encyclopedia of knowledge. God is vast like the Earth. ! is All-pervading like space. God is the Nourisher of mankind. God is j the Destroyer of the wicked, and the Protector of the self-sacrificing persons. He rules over the Past and Future. May he make me lord of my past and future.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(विराट्) अ० ८।९।१। राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च−क्विप्। विविधैश्वर्यवान् परमात्मा (वाक्) विद्यारूपः (विराट्) (पृथिवी) पृथिवीवद् विस्तृतः (विराट्) (अन्तरिक्षम्) आकाशवद् व्यापकः (विराट्) (प्रजापतिः) सूर्यवत् प्रजापालकः (विराट्) (मृत्युः) दुष्टानां मारकः (साध्यानाम्) अ० ७।५।१। परोपकारसाधकानां साधूनाम् (अधिराजः) अधिपतिः (बभूव) (तस्य) परमेश्वरस्य (भूतम्) अतीतकालः (भव्यम्) भविष्यत्कालः (वशे) अधीनत्वे (सः) (मे) मम (भूतम्) (भव्यम्) (वशे) (कृणोतु) करोतु ॥

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