अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 26
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
1
त्रयः॑ के॒शिन॑ ऋतु॒था वि च॑क्षते संवत्स॒रे व॑पत॒ एक॑ एषाम्। विश्व॑म॒न्यो अ॑भि॒चष्टे॒ शची॑भि॒र्ध्राजि॒रेक॑स्य ददृशे॒ न रू॒पम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्रय॑: । के॒शिन॑:। ऋ॒तु॒ऽथा । वि । च॒क्ष॒ते॒ । स॒म्ऽव॒त्स॒रे । व॒प॒ते॒ । एक॑: । ए॒षा॒म् । विश्व॑म् । अ॒न्य: । अ॒भि॒ऽचष्टे॑ । शची॑भि: । ध्राजि॑: । एक॑स्य । द॒दृ॒शे॒ । न । रू॒पम् ॥१५.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्। विश्वमन्यो अभिचष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्रय: । केशिन:। ऋतुऽथा । वि । चक्षते । सम्ऽवत्सरे । वपते । एक: । एषाम् । विश्वम् । अन्य: । अभिऽचष्टे । शचीभि: । ध्राजि: । एकस्य । ददृशे । न । रूपम् ॥१५.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(त्रयः) तीन (केशिनः) प्रकाशवाले [अपने गुण जतानेवाले, अग्नि, सूर्य और वायु] (ऋतुथा) ऋतु के अनुसार (संवत्सरे) संवत्सर [वर्ष] में (वि) विविध प्रकार (चक्षते) दीखते हैं, (एषाम्) इन में से (एकः) एक (अग्नि, ओषधियों को) (वपते) उपजाता है। (अन्यः) दूसरा [सूर्य] (शचीभिः) अपने कर्मों [प्रकाश, वृष्टि आदि] से (विश्वम्) संसार को (अभिचष्टे) देखता रहता है, (एकस्य) एक [वायु] की (ध्राजिः) गति (ददृशे) देखी गई है और (रूपम्) रूप (न) नहीं ॥२६॥
भावार्थ
पार्थिवाग्नि, सूर्य और वायु आदि पदार्थों के गुण और उपकारों से परमेश्वर की अद्भुत महिमा का अनुभव करके सब मनुष्य उसकी उपासना में तत्पर रहें ॥२६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।४४। तथा निरुक्त−१२।२७ ॥
टिप्पणी
२६−(त्रयः) अग्निसूर्यवायवः (केशिनः) काशृ दीप्तौ-अच् घञ् वा ततः−इनि, काशी सन् केशी। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा-निरु० १२।२५। प्रकाशवन्तः। स्वगुणज्ञापकाः (ऋतुथा) ऋतुप्रकारेण। काले काले (वि) विविधम् (चक्षते) कर्मण्यर्थे। दृश्यन्ते (संवत्सरे) वर्षे (वपते) उत्पादयति ओषधीः (एकः) पार्थिवाग्निः (एषाम्) त्रयाणां मध्ये (विश्वम्) जगत् (अन्यः) सूर्यः (अभिचष्टे) सर्वतः पश्यति (शचीभिः) अ० ५।११।८। शची कर्मनाम-निघ० २।१। स्वकीयैः प्रकाशवृष्ट्यादिकर्मभिः (ध्राजिः) गतिः (एकस्य) वायोः (ददृशे) दृष्टा (न) निषेधे (रूपम्) वर्णम् ॥
विषय
त्रयः केशिनः ।
पदार्थ
१. (त्रयः केशिन:) = तीन प्रकाशमय पदार्थ हैं। 'प्रकृति' तो हिरण्मय पात्र है ही। 'आत्मा' शरीरस्थरूपेण शरीर को दीप्त किये रखता है। प्रभु 'सहस्रांशुसमप्रभ' हैं। उनकी ज्योति को योगी ही देख पाते हैं। ज्ञानी लोग (ऋतुथा विचक्षते) = [ऋतु Light, splendour] प्रकाश के अनुसार इनका व्याख्यान करते हैं-शिष्य की योग्यता देखकर उसके अनुसार इनका प्रतिपादन करते हैं। प्रकृति का ज्ञान वे इस रूप में देते हैं कि (एषाम् एकः) = इन तीनों में से एक 'प्रकृति' (संवत्सरे) = उचित काल में बीजोत्पत्ति करती है-एक बीज को साठ बीजों में करके उनका फैलाव कर देती है। 'प्रकृतिः (सूयते सचराचरम्) = चराचर को यह प्रकृति हो तो उत्पन्न करती है। २. प्रकृति का यह सारा फैलाव प्रभु की अध्यक्षता में हो रहा है। वह (अन्य:) = विलक्षण प्रभु (शचीभि:) = अपनी विविध शक्तियों से (विश्वम्) = इस सारे ब्रह्माण्ड को (अभिचष्टे) = सब ओर से देख रहा है। उस सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् प्रभु की अध्यक्षता में इस प्रकृति के फैलाव में ग़लती नहीं होती। तीसरा एक जीव है। इस (एकस्य) = एक जीव की (प्राजिः ददृशे) = दौड़-चहल-पहल दीखती है, (न रूपम्) = इसका स्वरूप हमारी आँखों का विषय नहीं बनता। चहल-पहल सब जीव की है। प्रकृति व परमात्मा' माता-पिता के समान हैं। जीव बच्चों के समान हैं। बच्चों को ही तो चहल-पहल होती है।
भावार्थ
तीन पदार्थ हैं। प्रकृति से इस संसार का फैलाव होता है। प्रभु इस फैलाव को करते हैं। यहाँ जीव की ही चहल-पहल है-वस्तुत: उसी के लिए तो यह संसार बना है।
भाषार्थ
(त्रयः) तीन (केशिनः) रश्मियों वाले (ऋतुथा) अपने-अपने काल के अनुसार (वि चक्षते) निज ख्यातियां प्रकट करते हैं। (एषाम्) इन में से (एकः) एक (संवत्सरे) वर्ष में (वपते) बीजावाप में सहायक होता है। (अन्यः) दूसरा (शचीभिः) निज शक्तियों या कर्मो द्वारा (विश्वम्, अभिचष्टे) विश्व को देखता है। (एकस्य) एक की (ध्राजि:) गति तो (ददृशे) देखी जाती है, अनुभूत होती है (न रूपम्) परन्तु रूप नहीं।
टिप्पणी
[केशिनः="केशा रश्मयः, तैः तद्वन्तः। काशनाद्वा प्रकाशनाद्वा" (निरुक्त १२।३।२५)। त्रयः = तीन (१) आदित्यः; (२) धूमेनाग्निः; (३) रजसा च मध्यमः (निरुक्त १२।३।२५-२६)। बीजावाप में सहायक होती है मेघीय विद्युत्। विश्व को देखता है आदित्य। रूपरहित है वायु। शची कर्मनाम (निघं० २।१)। "वपते" में "वप्" के दो अर्थ होते हैं, ब्रीजसन्तान और छेदन। प्रथमार्थ में मेघीय विद्युत् अभिप्रेत है। द्वितीयार्थ में पार्थिवाग्नि। ग्रीष्म ऋतु में पार्थिवाग्नि वनों को जला देती है, उन्हें उच्छिन्न कर देती है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Spiritual Realisation
Meaning
Three powers of nature with their distinct identities express themselves and operate according to the cycle of the seasons in the year. One of these, the fire, procreates, i.e., helps in the sowing of the seeds and ripening of the crops. This is the fire-vitality of the earth. Another, the sun, with its actions and operations, illuminates the world. The third is wind and electricity : its force can be perceived but not its form.
Translation
The three, with beautiful tresses, look down in their several seasons upon the earth; one of them (fire) comes forth only once in a year (the ritual fire is established once in a year); the second one (the Sun), by his acts, brightens the universe; the course of the third one (air) is visible though not his form. (Also Rg. I.164.44)
Translation
There are three illuminating substances which are perceived performing various actions of the world according to law and order. One of them sows the seed of the world (i.e. God), one observes the world by all his powers (i.e. the soul) and the one whose force in action are seen but its essence is not visible (i. e. matter in subtle state).
Translation
Three resplendent forces work at different times. One of them creates animate and inanimate objects during the year. The other sustains the universe through its resources. The third dissolves the universe. Its impulse is seen but not the form.
Footnote
God creates, sustains, and dissolves the universe. In this verse these three sorts of the power of God are mentioned. That power being immaterial is not seen. It is only felt. Three forces may also refer to fire, Sun and Air, as interpreted by some commentator. See Rig, 1-164-44.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(त्रयः) अग्निसूर्यवायवः (केशिनः) काशृ दीप्तौ-अच् घञ् वा ततः−इनि, काशी सन् केशी। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा-निरु० १२।२५। प्रकाशवन्तः। स्वगुणज्ञापकाः (ऋतुथा) ऋतुप्रकारेण। काले काले (वि) विविधम् (चक्षते) कर्मण्यर्थे। दृश्यन्ते (संवत्सरे) वर्षे (वपते) उत्पादयति ओषधीः (एकः) पार्थिवाग्निः (एषाम्) त्रयाणां मध्ये (विश्वम्) जगत् (अन्यः) सूर्यः (अभिचष्टे) सर्वतः पश्यति (शचीभिः) अ० ५।११।८। शची कर्मनाम-निघ० २।१। स्वकीयैः प्रकाशवृष्ट्यादिकर्मभिः (ध्राजिः) गतिः (एकस्य) वायोः (ददृशे) दृष्टा (न) निषेधे (रूपम्) वर्णम् ॥
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