अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 16
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
1
अपा॒ङ्प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः। ता शश्व॑न्ता विषू॒चीना॑ वि॒यन्ता॒ न्यन्यं चि॒क्युर्न नि चि॑क्युर॒न्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअपा॑ङ् । प्राङ् । ए॒ति॒ । स्व॒धया॑ । गृ॒भी॒त: । अम॑र्त्य: । मर्त्ये॑न । सऽयो॑नि: । ता । शश्व॑न्ता । वि॒षू॒चीना॑ । वि॒ऽयन्ता॑ । नि । अ॒न्यम् । चि॒क्यु: । न । नि । चि॒क्यु॒: । अ॒न्यम् ॥१५.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अपाङ्प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः। ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपाङ् । प्राङ् । एति । स्वधया । गृभीत: । अमर्त्य: । मर्त्येन । सऽयोनि: । ता । शश्वन्ता । विषूचीना । विऽयन्ता । नि । अन्यम् । चिक्यु: । न । नि । चिक्यु: । अन्यम् ॥१५.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (गृभीतः) ग्रहण किया हुआ (अमर्त्यः) अमरण स्वभाववाला [जीव] (मर्त्येन) मरण स्वभाववाले [शरीर] के साथ (सयोनिः) एकस्थानी होकर (अपाङ्) नीचे को जाता हुआ [वा] (प्राङ्) ऊपर को जाता हुआ (एति) चलता है। (ता) वे दोनों (शश्वन्ता) नित्य चलनेवाले, (विषूचीना) सब ओर चलनेवाले और (वियन्ता) दूर-दूर चलनेवाले हैं, [उन दोनों में से] (अन्यम् अन्यम्) एक-एक को (नि चिक्युः) [विवेकियों ने] निश्चय करके जाना है [और मूर्खों ने] (न) नहीं (न चिक्युः) निश्चय किया है ॥१६॥
भावार्थ
जीवात्मा अपने कर्मानुसार शरीर पाता और अधोगति वा उर्ध्वगति को प्राप्त होता है। जीवात्मा और शरीर के भेद को विद्वान् जानते हैं और मूर्ख नहीं जानते ॥१६॥ इस मन्त्र का मिलान ऊपर मन्त्र ८ से करो। यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।३८। तथा निरुक्त−१४।२३ ॥
टिप्पणी
१६−(अपाङ्) अ० ३।३।६। अपगतः। अधोगतः (प्राङ्) अ० ३।४।१। ऊर्ध्वगतः (एति) गच्छति (स्वधया) म० ८। स्वधारणशक्त्या (गृभीतः) गृहीतः (अमर्त्यः) अमरणस्वभावो जीवः (मर्त्येन) छान्दसो दीर्घः। मरणधर्मणा देहेन (सयोनिः) समानस्थानः (ता) तौ मर्त्यामर्त्यौ शरीरजीवौ (शश्वन्ता) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८५। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-अति, द्विर्वचनम्, निपातनाद् रूपसिद्धिः। शश्वद्गामिनौ (विषूचीना) अ० ३।७।१। नानागामिनौ (वियन्ता) एतेः-शतृ। विप्रकृष्टदेशगामिनौ (नि) निश्चयेन (अन्यम्) जीवम् (चिक्युः) कि ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवन्तः (न) निषेधे (नि चिक्युः) विभाषा चेः। पा० ७।३।५८। चिनोतेर्लिटि अभ्यासादुत्तरस्य कुत्वम्। निश्चितवन्तः (अन्यम्) देहम् ॥
विषय
'आत्मस्वरूप का अज्ञान'-रूप महान् आश्चर्य
पदार्थ
१. जीव कर्मानुसार (अपाङ्) = कभी स्थावर, कभी पक्षी-मगादि की निचली योनियों में (एति) = जाता है और कभी (प्राङ्) = ऋषि-मुनि आदि की उत्कृष्ट योनियों को [एति] प्रास होता है। इस शरीर को छोड़ने पर (स्वधया) = अपनी धारण-शक्ति से (गृभीत:) = युक्त हुआ-हुआ यह दूसरे शरीरों में प्रवेश करता है। अपने लिए [स्व] जिन पाप-पुण्यों का उसने धारण किया है [श्रा lay by], उनसे युक्त हुआ-हुआ वह दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। (अमर्त्यः) = स्वरूप से जरामृत्यु से रहित भी यह (मत्यैन समोनि:) = मरणधर्मा शरीर के साथ ही समान जन्मवाला होता है। शरीर के साथ संयुक्त-वियुक्त होने से ही इसके लिए जन्म व मृत्यु के शब्दों का प्रयोग होने लगता है। २. (ता शश्वन्ता) = ये दोनों क्षर शरीर और अक्षर आत्मा सनातन काल से मिलते चले आ रहे हैं। ऐसा कोई समय नहीं जबकि यह शरीर प्रथम बार मिला हो। ये शरीर आत्मा (विषूचीना) = ब्रह्माण्ड में चारों ओर भिन्न-भिन्न लोकों में जानेवाले हैं, केवल प्रथिवी पर जन्म होता हो-ऐसी बात नहीं है। जब कभी यह जीव एक शरीर को छोड़ता है तब ये (वियन्ता) = विरुद्ध स्थितियों में जानेवाले होते हैं। गति देनेवाला अभौतिक आत्मा अमर है और इसके विपरीत यह भौतिक शरीर भस्म में परिणत हो जाता है-('वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम्) । सब कोई (अन्यम्) = इस शरीर को तो (निचिक्यु:) = जानते हैं, इसे ही वस्तुत: अपना स्वरूप समझते हैं। (अन्यम्) = उस आत्मतत्त्व को न निचक्युः नहीं जानते। अपने को ही न जानना' कितनी विचित्र बात है!
भावार्थ
अपने अर्जित पाप-पुण्यों के अनुसार जीव निचली व उपरली योनियों में जन्म लिया करता है। ये शरीर और आत्मा सदा से मेलवाले हैं, भिन्न-भिन्न लोकों में गतिवाले हैं। जीव शरीर को छोड़ता है तो आत्मा तो नये शरीर में प्रवेश पाता है और पराना शरीर भस्मान्त होकर पञ्च तत्त्वों में मिल जाता है। 'हम शरीर को ही जानते हैं, अपने को नहीं जानते' यह कितना बड़ा आश्चर्य है।
भाषार्थ
(अमर्त्यः) न मरने वाला जीवात्मा, (मर्त्येन) मरणधर्मा मन के साथ, (सयोनिः) समान मातृयोनि में जाने वाला, (स्वधया) निजनिहित संस्कारों द्वारा (गृभीतः) जकड़ा हुआ, (अपाङ् प्राङ) अपकृष्ट प्रकृष्ट योनियों में (एति) आता जाता है। (ता) वे दोनों अर्थात् मन और जीवात्मा (शाश्वन्ता) शाश्वत काल से परस्पर बन्धे हुए हैं, (विषूचीना) सर्वत्र विचरते हैं, (वियन्ता) विविध योनियों में जाते हैं। लोग (अन्यम्) एक की अर्थात् मन को तो (नि चिक्युः) जानते हैं, (अन्यम्) अन्य अर्थात् जीवात्मा को (न निचिक्युः) नहीं जानते।
टिप्पणी
[अपाङ् प्राङ्= नीच योनि और प्रकृष्ट योनि]।
इंग्लिश (4)
Subject
Spiritual Realisation
Meaning
The immortal soul, caught up in its own potential, goes back and forth coexistent with the mortal body. Both body and soul are eternal and eternally together, the body as Prakrti in the essence, and the soul as spirit. Both are different and going apart. Those who know, know one and the other, some know one but not the other, and those who do not know know neither.
Translation
The immortal soul associated with the mortal body ceaselessly moves the lower (inferior) or the upper (superior) bodies according to its own actions. They both go always together, and every where together, (we, the men) have comprehended the one (whilst in the physical body) but have not comprehended the other (the-soul free from-body). (Also. Rg. I.164.38)
Translation
The immortal soul occupying the same locality with the mortal (body) attains right and wrong modes Of existence being grasped by the substance (of his life which is the result of his own actions.) Both of them ceaslessly move towards all directions and attain various stages. Men fully perceive the none but fall to perceive the other.
Translation
The immortal soul, living together with the mortal body, bound by the fruit of its actions, degrades and elevates itself. Ceaselessly they move in all directions, and go to different places. Men mark the one and fail to mark the other.
Footnote
They: The soul and body. One: Body. Other: The soul. See Rig, 1-164-38.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(अपाङ्) अ० ३।३।६। अपगतः। अधोगतः (प्राङ्) अ० ३।४।१। ऊर्ध्वगतः (एति) गच्छति (स्वधया) म० ८। स्वधारणशक्त्या (गृभीतः) गृहीतः (अमर्त्यः) अमरणस्वभावो जीवः (मर्त्येन) छान्दसो दीर्घः। मरणधर्मणा देहेन (सयोनिः) समानस्थानः (ता) तौ मर्त्यामर्त्यौ शरीरजीवौ (शश्वन्ता) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८५। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-अति, द्विर्वचनम्, निपातनाद् रूपसिद्धिः। शश्वद्गामिनौ (विषूचीना) अ० ३।७।१। नानागामिनौ (वियन्ता) एतेः-शतृ। विप्रकृष्टदेशगामिनौ (नि) निश्चयेन (अन्यम्) जीवम् (चिक्युः) कि ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवन्तः (न) निषेधे (नि चिक्युः) विभाषा चेः। पा० ७।३।५८। चिनोतेर्लिटि अभ्यासादुत्तरस्य कुत्वम्। निश्चितवन्तः (अन्यम्) देहम् ॥
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