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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 12
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    द्यौर्नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता नाभि॒रत्र॒ बन्धु॑र्नो मा॒ता पृ॑थि॒वी म॒हीयम्। उ॑त्ता॒नयो॑श्च॒म्वो॒र्योनि॑र॒न्तरत्रा॑ पि॒ता दु॑हि॒तुर्गर्भ॒माधा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौ: । न॒: । पि॒ता । ज॒नि॒ता । नाभि॑: । अत्र॑ । बन्धु॑: । न॒: । मा॒ता । पृ॒थि॒वी । म॒ही । इ॒यम् । उ॒त्ता॒नयो॑: । च॒म्वो᳡: । योनि॑: । अ॒न्त: । अत्र॑ । पि॒ता । दु॒हि॒तु: । गर्भ॑म्‌ । आ । अ॒घा॒त् ॥१५.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौर्नः पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्नो माता पृथिवी महीयम्। उत्तानयोश्चम्वोर्योनिरन्तरत्रा पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौ: । न: । पिता । जनिता । नाभि: । अत्र । बन्धु: । न: । माता । पृथिवी । मही । इयम् । उत्तानयो: । चम्वो: । योनि: । अन्त: । अत्र । पिता । दुहितु: । गर्भम्‌ । आ । अघात् ॥१५.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य (नः) हमारा (पिता) पालनेवाला और (जनिता) उत्पन्न करनेवाला है, (अत्र) इस [सूर्य] में (नः) हमारी (नाभिः) नाभि [प्रकाश वा जलरूप उत्पत्ति का मूल] है, (इयम्) यह (मही) बड़ी (पृथिवी) पृथिवी (माता) और (बन्धुः) बन्धु [के तुल्य] है। (उत्तानयोः) उत्तमता से फैले हुए (चम्वोः) [दो सेनाओं के समान स्थित] सूर्य और पृथिवी के (अन्तः) बीच (योनिः) [जो] घर [अवकाश] है, (अत्र) इस [अवकाश] में (पिता) पालनेवाले [सूर्य वा मेघ] ने (दुहितुः) [रसों को खींचनेवाली] पृथिवी के (गर्भम्) उत्पत्तिसामर्थ्य [जल] को (आ) यथाविधि (अधात्) धारण किया है ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मा की महिमा से सूर्य और भूमि सब प्राणियों के पिता, माता और बन्धु के समान हैं, उन दोनों के बीच अन्तरिक्ष में पृथिवी से किरणों द्वारा जल खिंच कर मेघमण्डल में रहता है, फिर वही जल पृथिवी पर बरस कर नाना पदार्थ उत्पन्न करता और प्राणियों को जीवनसाधन देता है, उस जगदीश्वर की उपासना सब मनुष्यों को सदा करनी चाहिये ॥१२॥ (नः, नः) के स्थान में [मे, मे] है−ऋग्वेद १।१६४।३३। तथा निरु० ४।२१ ॥

    टिप्पणी

    १२−(द्यौः) अ० २।१२।६। प्रकाशमानः सूर्यः (नः) अस्माकम् (पिता) पिता पालयिता-वा-निरु० ४।२१। (जनिता) जनयिता (नाभिः) अ० १।१३।३। नाभिः सन्नहनान्नाभ्या सन्नद्धा गर्भा जायन्त इत्याहुः-निरु० ४।२१। तुन्दकूपीचक्रं यथा (अत्र) सूर्ये (बन्धुः) सम्बन्धी (नः) (माता) जननी यथा (मही) अ० १।१७।२। महती (इयम्) (उत्तानयोः) अ० ९।९।१४। उत्तमतया विस्तृतयोः (चम्वोः) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। चमु अदने−ऊ। चम्वौ द्यावापृथिव्यौ-निघ० ३।३०। चमन्त्यनयोः। द्यावापृथिव्योः। सेनयोरिव-दयानन्दभाष्ये (योनिः) गृहम्-निघ० ३।४। अवकाशः (अन्तः) मध्ये (अत्र) योनौ (पिता) पालकः सूर्यः पर्जन्यो वा (दुहितुः) अ–० ३।१०।१३। दुह प्रपूरणे−तृच्। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा-निरु० ३।४। दोग्धि प्रपूरयतीति दुहिता। रसानां प्रपूरयित्र्याः। पृथिव्याः-निरु० ४।˜२१। दूरे निहिताया भूम्याः−इति सायणः (गर्भम्) सर्वोत्पादनसमर्थं वृष्ट्युदकलक्षणम्−इति सायणः। सर्वभूतगर्भोत्पत्तिहेतुभूतोदकम्−इति दुर्गाचार्यः-निरुक्तटीकायाम्−४।२१। वीर्यरूपं जलम् (आ) समन्तात् (अधात्) धृतवान् ॥

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    विषय

    पिता, माता [द्यौष्पिता, पृथिवी माता]

    पदार्थ

    १. (द्यौः) = यह द्युलोक (अत्र) = इस जीवन में (न:) = हमारा पिता-सूर्य के द्वारा वृष्टि व प्राणशक्ति प्राप्त कराके रक्षण कर रहा है। (जनिता) = यही हमें जन्म देनेवाला है-हमारी शक्तियों के प्रादुर्भाव का कारण बनता है। (नाभि:) = यह सब लोकों का बन्धन-स्थान [केन्द्र] है। (इयम् मही पृथिवी) = यह महनीय विस्तृत भूमि (नः बन्धुः) = हमारी मित्रवत् हितकारिणी है। (माता) = यही हमारे जीवन की निर्मात्री है-सब अन्नों को उत्पन्न करके हमारा पालन करती है। २. इन (उत्तानयोः चम्वो:) = [चम्बौ द्यावापृथिव्या-निरु०] उत्तमता से विस्तृत यावापृथिवी का (योनि:) = शक्ति के मिश्रण का स्थान (अन्त:) = मध्य में, अर्थात् अन्तरिक्षलोक में है। (अत्र) = यहाँ अन्तरिक्षलोक में ही (पिता) = सबका रक्षक यह द्युलोक (दुहितुः) = अन्न आदि के द्वारा सबका धारण करनेवाली पृथिवी में (गर्भम् आधात्) = गर्भ को धारण करता है। अन्तरिक्ष से ही वृष्टि आदि होकर पृथिवी में अन्नादि को पैदा करने की शक्ति का स्थापन किया जाता है।

    भावार्थ

    द्लोयुक हमारा पिता है तो पृथिवी हमारी माता है। इन दोनों का मेल अन्तरिक्ष में होता है। धुलोक वृष्टि द्वारा इस पृथिवी में गर्भ का धारण करता है और तब सब अन्नादि पदार्थों का उत्पादन होता है।

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    भाषार्थ

    (द्यौः) द्युलोक या द्युतिमान् सूर्य (नः) हमारा (पिता, जनिता) जन्मदाता पिता है, (अत्र) इस एक जन्मदाता के होते (नाभिः) हम सब का परस्पर सम्बन्ध है। (इयम्) यह (मही) महनीया (पृथिवी) पृथिवी (माता) माता भी (नः बन्धुः) हमें परस्पर में बान्धने वाली है। (उत्तानयोः) ऊपर की ओर तने हुए, उभरे हुए (चम्वोः) द्यौः अर्थात् लोक और पृथिवी के (अन्तः) अन्तराल अन्तरिक्ष में (योनि) योनि है। (अत्र) इस योनि में (पिता) पिता अर्थात् द्युलोक या द्युतिमान् सूर्य (दुहितुः) निज दुहिता सम्बन्धी (गर्भम्१) गर्भकारी मेघ को (आ अधात्) अन्तरिक्ष में सब ओर फैला कर स्थापित करता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में दो भावनाओं का युगपत् समावेश किया है। इसलिये इन दो भावनाओं को दो सन्दर्भों में पृथक्-पृथक् दर्शाया है। प्रथम सन्दर्भ में हम सब का पिता, द्यौः कहा है, और माता पृथिवी कही है। इस प्रकार इन से उत्पन्न हुए हम सब में परस्पर भाइयों तथा बहिनों का सम्बन्ध द्योतित किया है। दूसरे सन्दर्भ में पिता और दुहिता का कथन हुआ है। सूर्य पिता है और पृथिवी दुहिता। पृथिवी सूर्य के शरीर से विभक्त हुई है, अतः दुहिता है। पिता का कर्तव्य है कि वह निज दुहिता के सम्बन्ध में उचित पति का प्रबन्ध करे। वह उचित पति है अन्तरालस्थ, वर्षा ऋतु का चारों ओर फैला हुआ मेघ। मेघ निज वर्षा रूपी वीर्य द्वारा इस दुहिता में स्थापन करता है, जिस से प्राणी और अन्नादि पैदा होते हैं। मन्त्र में यह वर्णन नहीं कि पिता ने दुहिता में गर्भस्थापन किया। इस अर्थ में दुहितुः के स्थान में दुहितरि पाठ चाहिये। "उत्तानयोः" द्वारा पृथिवी और द्युलोक को ऊपर की ओर उभरे हुए दर्शाया है। इस द्वारा इन दोनों की आकृति गोलाकार सूचित की है। गोल वस्तु सब ओर उभरी हुई होती है। "चम्वौ द्यावापृथिवीनाम" (निघं० ३।३०)। नाभिः = नह बन्धने। बन्धु का भी यौगिक अर्थ बन्धन ही है]। [१. गर्भः = The offspring of the sky, the vapours and fogs drawn upwards by the rays of the sun during 8 months and sent down again in the rainy season आप्टे। इस प्रकार "गर्भ" का अर्थ "मेघ" भी है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    The heaven above is our father and progenitor, our centre-hold, our haven and home here, our brother support to stand by. And this great earth, this nature, is our mother. Into the womb of these two great expansive creative powers, the middle region between heaven and earth, the father places the seeds of life through rain on the planet earth.

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    Translation

    The heaven, our father and begetter, is our close relation here; this great earth, our mother, is the close friend. Placed upright (with mouth upwards) the two cups are the womb; here the father lays the seed within the daughter. (Also Rg. I.164.33)

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    Translation

    The sun is our protector, life-giver and in it is the navel of the worlds and it is binding all the planets. This grand earth is like our mother. The sun which has its place between earth and heaven established below and above, becoming the cause of its rise finds out the day from it as the son of this earth or the dawn of the morning.

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    Translation

    Like the refulgent Sun, God is our father, begetter, and most efficient cause of creation. Like the vast-expanded Earth, He is our Kin and Mother. Between the wide-spread heaven and earth, He is the main support of all. God infuses in Matter the power of creating myriad objects.

    Footnote

    See Rig, 1-164-33.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(द्यौः) अ० २।१२।६। प्रकाशमानः सूर्यः (नः) अस्माकम् (पिता) पिता पालयिता-वा-निरु० ४।२१। (जनिता) जनयिता (नाभिः) अ० १।१३।३। नाभिः सन्नहनान्नाभ्या सन्नद्धा गर्भा जायन्त इत्याहुः-निरु० ४।२१। तुन्दकूपीचक्रं यथा (अत्र) सूर्ये (बन्धुः) सम्बन्धी (नः) (माता) जननी यथा (मही) अ० १।१७।२। महती (इयम्) (उत्तानयोः) अ० ९।९।१४। उत्तमतया विस्तृतयोः (चम्वोः) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। चमु अदने−ऊ। चम्वौ द्यावापृथिव्यौ-निघ० ३।३०। चमन्त्यनयोः। द्यावापृथिव्योः। सेनयोरिव-दयानन्दभाष्ये (योनिः) गृहम्-निघ० ३।४। अवकाशः (अन्तः) मध्ये (अत्र) योनौ (पिता) पालकः सूर्यः पर्जन्यो वा (दुहितुः) अ–० ३।१०।१३। दुह प्रपूरणे−तृच्। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा-निरु० ३।४। दोग्धि प्रपूरयतीति दुहिता। रसानां प्रपूरयित्र्याः। पृथिव्याः-निरु० ४।˜२१। दूरे निहिताया भूम्याः−इति सायणः (गर्भम्) सर्वोत्पादनसमर्थं वृष्ट्युदकलक्षणम्−इति सायणः। सर्वभूतगर्भोत्पत्तिहेतुभूतोदकम्−इति दुर्गाचार्यः-निरुक्तटीकायाम्−४।२१। वीर्यरूपं जलम् (आ) समन्तात् (अधात्) धृतवान् ॥

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