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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 17
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    स॒प्तार्ध॑ग॒र्भा भुव॑नस्य॒ रेतो॒ विष्णो॑स्तिष्ठन्ति प्र॒दिशा॒ विध॑र्मणि। ते धी॒तिभि॒र्मन॑सा॒ ते वि॑प॒श्चितः॑ परि॒भुवः॒ परि॑ भवन्ति वि॒श्वतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । अ॒र्ध॒ऽग॒र्भा: । भुव॑नस्य । रेत॑: । विष्णो॑: । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । प्र॒ऽदिशा॑ । विऽध॑र्मणि । ते । धी॒तिऽभि॑: । मन॑सा । ते । वि॒प॒:ऽचित॑: । प॒रि॒ऽभुव॑: । परि॑ । भ॒व॒न्ति॒ । वि॒श्वत॑: ॥१५.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि। ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभुवः परि भवन्ति विश्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । अर्धऽगर्भा: । भुवनस्य । रेत: । विष्णो: । तिष्ठन्ति । प्रऽदिशा । विऽधर्मणि । ते । धीतिऽभि: । मनसा । ते । विप:ऽचित: । परिऽभुव: । परि । भवन्ति । विश्वत: ॥१५.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सप्त) सात (अर्धगर्भाः) समृद्ध गर्भवाले [पूरे उत्पादन सामर्थ्यवाले, महत्तत्त्व, अहंकार, पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश के परमाणु] (भुवनस्य) संसार के (रेतः) बीज होकर (विष्णोः) व्यापक परमात्मा की (प्रदिशा) आज्ञा से (विधर्मणि) विविध धारण सामर्थ्य में (तिष्ठन्ति) ठहरते हैं। (ते ते) वे ही [सातों] (विपश्चितः) बुद्धिमान् [परमेश्वर] की (धीतिभिः) धारणशक्तियों और (मनसा) विचार के साथ (परिभुवः) घेरनेवाले [शरीरों और लोकों] को (विश्वतः) सब ओर से (परि भवन्ति) घेरते हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    महत्तत्त्व, अहंकार आदि सात पदार्थ जगत् के कारण हैं, वे ईश्वरीय नियम से सृष्टि के सब शरीरधारी प्राणियों और लोकों में परिपूर्ण हैं ॥१७॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।™३६। तथा निरुक्त १४।२१ ॥

    टिप्पणी

    १७−(सप्त) (अर्धगर्भाः) ऋधु वृद्धौ-घञ्। ऋद्धः प्रवृद्धो गर्भ उत्पादनसामर्थ्यं येषां ते महत्तत्त्वाहंकारपञ्चभूतपरमाणवः (भुवनस्य) संसारस्य (रेतः) वीर्यम् (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (तिष्ठन्ति) वर्तन्ते (प्रदिशा) आज्ञया (विधर्मणि) विविधधारणव्यापारे (ते) महत्तत्त्वादयः (धीतिभिः) धारणशक्तिभिः (मनसा) विचारेण (ते) वीप्सायां द्विर्वचनम् (विपश्चितः) अ० ६।५२।३। मेधाविनः परमेश्वरस्य (परिभुवः) परिभावकान्। आच्छादकान् शरीरादिलोकान् (विश्वतः) सर्वतः (परिभवन्ति) परितः प्राप्नुवन्ति। आच्छादयन्ति ॥

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    विषय

    प्रकृति में प्रभु का दर्शन

    पदार्थ

    १. प्रकृति से उत्पन्न होनेवाला 'महत्तत्त्व', महान् से उत्पन्न अहंकार तथा अहंकार से उत्पन्न पञ्च तन्मात्राएँ-ये (सप्त) = सात (अर्धगर्भा:) = समृद्ध उत्पादन सामर्थ्यवाले (तत्व भुवनस्य रेत:) = सारे भुवनों की शक्ति हैं-उत्पत्ति के कारण हैं। ये सब (विष्णो:) = उस व्यापक प्रभु के (प्रदिश:) = शासन से विधर्मणि (तिष्ठन्ति) = धारणात्मक कार्य में स्थित हैं। उस प्रभु के शासन में ही अपना-अपना धारण कार्य कर रहे हैं। २. (ते विपश्चित:) = वे विशेषरूप से देखकर चिन्तन करनेवाले, (ते) = वे (धीतिभि:) = ध्यानों के द्वारा और (मनसा) = मनन के द्वारा (परिभुवः) = उन पदार्थों का चारों ओर से [परि] विचार करनेवाले लोग (विश्वतः परिभवन्ति) = सब प्रकार से इन इन्द्रियों का परिभव करते हैं, इन्हें सब ओर से वशीभूत करते हैं।

    भावार्थ

    हम प्रकृति से उत्पन्न होते हुए इस संसार के अधिष्ठाता उस प्रभु को न भूलेंगे तो संसार के विषयों में न फँसकर इन्द्रियों को वशीभूत करनेवाले बनेंगे।

     

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    भाषार्थ

    (सप्त अर्धगर्भाः) आर्ध-गर्भरूप सात अर्थात् महत्तत्त्व, अहंकार , तथा पञ्चतन्मात्राएं - (भुवनस्य रेतः) सत्ता वाले संसार के उपादन कारण हैं, वे (विधर्मणि) विविध संसार के धारण में (विष्णोः) सर्वव्यापक परमेश्वर के (प्रदिशा) प्रदिष्ट मार्ग द्वारा या आज्ञा द्वारा (तिष्ठन्ति) स्थित हो रहे हैं। (ते) वे सात (विपश्चितः) मेधावी परमेश्वर के (धीतिभिः) कर्मों के द्वारा, (ते) वे सात (मनसा) मेधावी परमेश्वर के मनन या संकल्प के द्वारा (परिभुवः) सौर पृथिवियों के सब ओर, तथा (विश्वतः) विश्व के (परिभवन्ति) सब ओर विद्यमान हैं।

    टिप्पणी

    [सप्त अर्धगर्भाः = वे सात, प्रकृति से पैदा हुए हैं अतः कार्यरूप हैं, और भूत भौतिक संसार के उपादान है अतः कारणरूप भी हैं। अतः इन सात में कार्यरूपता और कारणरूपता अर्ध-अर्ध रूप में स्थित है१। धीतिभिः= कर्मों अर्थात् क्रियाशक्तियों के अनुसार, अनुकूल। यथा “स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च" (श्वेता० उप० ६।८), परमेश्वर में “ज्ञान बल क्रिया" स्वाभाविकी है, अर्थात् उस में अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है, जो कि स्वाभाविक है। जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभु तथापि चेतन होने से उस में क्रिया भी है (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम समुल्लास)। मन्त्र में धितिभिः द्वारा परमेश्वर की क्रियाओं का वर्णन हुआ है। मनसा= परमेश्वर "सत्यसंकल्प" है। मनुष्य का मन संकल्प-विकल्पी है। धीतिभिः= कर्मभिः (निरुक्त ११।२।१५)] [१.यथा "मुलप्रकृतिरविकृतिर्महदादयः प्रकृतिविकृतयः सप्त" सांख्यकारिका)। जैसे कि माता के पेट में ५, ६ मासों का शिशु, वीर्य का कार्य और भावी बच्चे का कारण होता है, इस प्रकार वह विकृति और प्रकृति, -इन दोनों रूपों में होता है। यही अवस्था महदादि की है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    Seven evolutes of Prakrti, i.e., five elements and mind and senses (which evolve from Ahankara and Mahat-tattva) represent half of the divine process of creation, the other half being the creative seed or thought-sankalpa of Vishnu, Parameshthi Prajapati. By the will of Vishnu they bide by their functions and abide in the time-space continuum with their powers and properties, and they comprehend and rule the entire worlds of existence by the immanent will of the omniscient, omnipresent and omnipotent Vishnu.

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    Translation

    The seven half-embryos (the semen of the universe) are employed in the work of supporting (the universe) by the Lord’s orders. Those wise ones consciously whirl round and round the earth. (Cosmic intelligence, ego and five abstracts - colour, taste, sound, touch and smell - as the seven). (Also Rg. I.164.36)

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    Translation

    The seven Prakriti-Vikriti (Resolution different ation, and five rare elements) which are the effect of matter but cause of all the other objects organic and inorganic wearing the seed power of the world with the ordinance of God are placed by Him in producing the objects of various nature and qualities. These with their different funcuons endued with the wisdom and intelligence of God change them on all sides in many forms.

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    Translation

    The seven fully developed forces are the prolific seed of the universe: their functions they maintain by God’s ordinance. Present on every side they compass us about.

    Footnote

    Seven forces: (1) Mahat-tatva, Intellect (2) Ahankara, ego (3) Prithvi, Earth (4) Water (5) Fire (6) Air (7) Akasha, Atmosphere. Professor Ludwig remarks, this verse is one of the most unintelligible in the whole Veda. I fail to understand this view. The significance is clear. See Rig, 1-164-36.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(सप्त) (अर्धगर्भाः) ऋधु वृद्धौ-घञ्। ऋद्धः प्रवृद्धो गर्भ उत्पादनसामर्थ्यं येषां ते महत्तत्त्वाहंकारपञ्चभूतपरमाणवः (भुवनस्य) संसारस्य (रेतः) वीर्यम् (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (तिष्ठन्ति) वर्तन्ते (प्रदिशा) आज्ञया (विधर्मणि) विविधधारणव्यापारे (ते) महत्तत्त्वादयः (धीतिभिः) धारणशक्तिभिः (मनसा) विचारेण (ते) वीप्सायां द्विर्वचनम् (विपश्चितः) अ० ६।५२।३। मेधाविनः परमेश्वरस्य (परिभुवः) परिभावकान्। आच्छादकान् शरीरादिलोकान् (विश्वतः) सर्वतः (परिभवन्ति) परितः प्राप्नुवन्ति। आच्छादयन्ति ॥

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