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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्योम॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः। यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्ते॑ अ॒मी समा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒च: । अ॒क्षरे॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । यस्मि॑न् । दे॒वा: । अधि॑ । विश्वे॑ । नि॒ऽसे॒दु: । य: । तत् । न । वेद॑ । किम् । ऋ॒चा । क॒रि॒ष्य॒ति॒ । ये । इत् । तत् । वि॒दु॒: । ते । अ॒मी इति॑ । सम् । आ॒स॒ते॒ ॥१५.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्ते अमी समासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋच: । अक्षरे । परमे । विऽओमन् । यस्मिन् । देवा: । अधि । विश्वे । निऽसेदु: । य: । तत् । न । वेद । किम् । ऋचा । करिष्यति । ये । इत् । तत् । विदु: । ते । अमी इति । सम् । आसते ॥१५.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मिन्) जिस (अक्षरे) व्यापक [वा अविनाशी] (परमे) सर्वोत्तम (व्योमन्) विविध रक्षक [वा आकाशवत् व्यापक] ब्रह्म में (ऋचः) वेदविद्याएँ और (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य पदार्थ [पृथिवी सूर्य आदि लोक] (अधि) ठीक-ठीक (निषेदुः) ठहरे थे। (यः) जो [मनुष्य] (तत्) उस [ब्रह्म] को (न वेद) नहीं जानता, वह (ऋचा) वेदविद्या से (किम्) क्या [लाभ] (करिष्यति) करेगा, (ये) जो [पुरुष] (इत्) ही (तत्) उस [ब्रह्म] को (विदुः) जानते हैं (ते अमी) वे यही [पुरुष] (सम्) शोभा के साथ (आसते) रहते हैं ॥१८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर सब सत्य विद्याओं और लोकों का आधार है, विद्वान् लोग वेद द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं और मूर्ख लोग उस आनन्द को नहीं पाते ॥१८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।३९। तथा निरुक्त १३।१० ॥

    टिप्पणी

    १८−(ऋचः) ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। वेदविद्याः (अक्षरे) अ० ९।१०।२। सर्वव्यापके। अविनाशिनि (परमे) उत्तमे (व्योमन्) म० १४। विविधं रक्षके आकाशवद् व्यापके वा ब्रह्मणि (यस्मिन्) (देवाः) दिव्यपदार्थाः पृथिवीसूर्यादिलोकाः (अधि) यथाविधि (विश्वे) सर्वे (निषेदुः) तस्थुः (यः) पुरुषः (तत्) ब्रह्म (न) नहि (वेद) जानाति (किम्) कं लाभम् (ऋचा) वेदवाण्या (करिष्यति) प्राप्स्यति (ये) (इत्) एव (तत्) (विदुः) (ते) (अमी) (सम्) सम्यक्। शोभया (आसते) विद्यन्ते ॥

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    विषय

    प्रभुरूप 'परम' व्योम में

    पदार्थ

    १. (ऋचः) = ऋचाएँ-गुण-वर्णनात्मक सभी मन्त्र (अक्षरे) = उस अविनाशी प्रभु का वर्णन कर रहे हैं, जोकि (परमे) = परम हैं, सर्वोत्कृष्ट हैं। प्रकृति 'अपरा' है जीव 'पर' है और प्रभु 'परम' हैं। ये ऋचाएँ उस प्रभु का वर्णन करती हैं जोकि (व्योमन) = [वि ओम् उन] जिनके एक कन्धे पर प्रकृति है और दूसरे पर जीव [वि-प्रकृति, 'गति, प्रजनन, कान्ति, असन् व खादन' का यही तो आश्रय है, अन्-प्राणित होनेवाला जीव]। ये ऋचाएँ उस प्रभु में निषण्ण हैं, (यस्मिन्) = जिसमें कि (विश्वेदेवा:) = सब देव अधि निषेदुः अधीन होकर निषण्ण हो रहे है। २. (यः) = जो (तत् न वेद) = उस प्रभु को नहीं जानता (ऋचा) = वह ऋचाओं से (किं करिष्यति) = क्या लाभ प्राप्त करेगा ? (ये) = जो (इत) = निश्चय से (तत् विदुः) = उस व्यापक प्रभु को जानते हैं, (ते अमी) = वे ये लोग (समासते) = इस संसार में सम्यक् आसीन होते हैं-वे परस्पर प्रेम से उठते-बैठते हैं।

    भावार्थ

    सब ऋचाओं का अन्तिम तात्पर्य उस प्रभु में है, जोकि अविनाशी, सर्वोत्कृष्ट ब सर्वाधार हैं। उसी प्रभु में सब देव निषण्ण हैं। प्रभु को नहीं जाना तो ऋचाओं का कुछ लाभ नहीं। प्रभु को जाननेवाले परस्पर प्रेम से व्यवहार करते हैं।

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    भाषार्थ

    (ऋचः) ऋग्वेदादि के प्रतिपाद्य (यस्मिन्) जिस (अक्षरे) अविनाशी (परमे) सर्वोत्तम (व्योमन्) आकाशवत् व्यापक परमेश्वर में (विश्वे देवाः) समस्त सूर्य आदि दिव्य पदार्थ (अधि निषेदुः) आधेयरूप से स्थित हैं, (यः) जो (तत्) उस परब्रह्म को (न, वेद) नहीं जानता वह (ऋचा) ऋग्वेदादि द्वारा (किम्) क्या (करिष्यति) करेगा, (ये इत्) जो ही (तत्) उस परब्रह्म को (विदुः) जानते हैं (ते, अमी) वे ही ये (समासते) सम्यक् स्थिति वाले होते हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    The Rks, Vedas, exist in the omniscient Supreme Spirit of existence, infinite and imperishable as the eternal and ultimate Space-time continuum. In That all the divine powers of creation and existence subsist. If one does not know that what would he or she achieve by mere words of the Rks? Those who know and realise That, reside with That.

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    Translation

    The supreme Lord is omnipresent like space and eternal like his world and all Nature’s bounties have their repose in Him. What will he, who knows not this (divine principle), do with the Veda ? But they, who know it, they come close to Him. (Also Rg. I.164.39)

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    Translation

    He who does not know vast space of Riks i.e. the indestructible all-pervading Lord of the Vedic speech in whom all the physical and spiritual forces find their repose, will do what with the mere words. But he who know that Supreme Being (the fountain of Vedic speech) embraces Him in emancipation.

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    Translation

    All the Vedas remain under the highest protection of the Immortal God; under Whose sway reside all learned persons and the forces of nature. What benefit will he derive from the Vedas, who knows not Him? They who know Him can alone attain to salvation.

    Footnote

    See Rig, 1-164-39.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(ऋचः) ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। वेदविद्याः (अक्षरे) अ० ९।१०।२। सर्वव्यापके। अविनाशिनि (परमे) उत्तमे (व्योमन्) म० १४। विविधं रक्षके आकाशवद् व्यापके वा ब्रह्मणि (यस्मिन्) (देवाः) दिव्यपदार्थाः पृथिवीसूर्यादिलोकाः (अधि) यथाविधि (विश्वे) सर्वे (निषेदुः) तस्थुः (यः) पुरुषः (तत्) ब्रह्म (न) नहि (वेद) जानाति (किम्) कं लाभम् (ऋचा) वेदवाण्या (करिष्यति) प्राप्स्यति (ये) (इत्) एव (तत्) (विदुः) (ते) (अमी) (सम्) सम्यक्। शोभया (आसते) विद्यन्ते ॥

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