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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    1

    पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ पर॒मन्तं॑ पृथि॒व्याः पृ॒च्छामि॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतः॑। पृ॒च्छामि॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ नाभिं॑ पृ॒च्छामि॑ वा॒चः प॑र॒मं व्योम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒च्छामि॑ । त्वा॒ । पर॑म् । अन्त॑म् । पृ॒थि॒व्या: । पृ॒च्छामि॑ । वृष्ण॑: । अश्व॑स्य । रेत॑: । पृ॒च्छामि॑ । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । नाभि॑म् । पृ॒च्छामि॑ । वा॒च: । प॒र॒मम् । विऽओ॑म ॥१५.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि वृष्णो अश्वस्य रेतः। पृच्छामि विश्वस्य भुवनस्य नाभिं पृच्छामि वाचः परमं व्योम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृच्छामि । त्वा । परम् । अन्तम् । पृथिव्या: । पृच्छामि । वृष्ण: । अश्वस्य । रेत: । पृच्छामि । विश्वस्य । भुवनस्य । नाभिम् । पृच्छामि । वाच: । परमम् । विऽओम ॥१५.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वान् !] (त्वा) तुझ से (पृथिव्याः) पृथिवी के (परम्) परले (अन्तम्) अन्त को (पृच्छामि) पूँछता हूँ, (वृष्णः) पराक्रमी (अश्वस्य) बलवान् पुरुष के (रेतः) पराक्रम को (पृच्छामि) पूँछता हूँ। (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) संसार के (नाभिम्) नाभि [बन्धनकर्ता] को (पृच्छामि) पूँछता हूँ, (वाचः) वाणी [विद्या] के (परमम्) परम (व्योम) [विविध रक्षास्थान] अवकाश को (पृच्छामि) पूँछता हूँ ॥१३॥

    भावार्थ

    जिज्ञासु लोग इस प्रकार के विद्यासम्बन्धी प्रश्न किया करें १−पृथिवी की सीमा का आदि-अन्त क्या है, २-पराक्रमी जन का बल क्या है, ३-जगत् का आकर्षण क्या है और ४-वाणी का पारगन्ता कौन है। इन चार प्रश्नों का उत्तर अगले मन्त्र में है ॥१३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।३४। तथा यजु० २३।६१ ॥

    टिप्पणी

    १३−(पृच्छामि) अहं जिज्ञासे (त्वा) विद्वांसम् (परम्) सीमापरिच्छिन्नम् (अन्तम्) सीमाम् (पृथिव्याः) (पृच्छामि) (वृष्णः) अ० १।१२।१। वृषु सेचनप्रजनैश्येषु-कनिन्। ऐश्वर्यवतः। पराक्रमिणः (अश्वस्य) बलवतः पुरुषस्य (रेतः) वीर्यम् (पृच्छामि) (विश्वस्य) सर्वस्य (भुवनस्य) लोकस्य (नाभिम्) अ० १।१३।३। णह बन्धने−इञ्। मध्याकर्षणेन बन्धकम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० २३।६१। (पृच्छामि) (वाचः) वाण्या विद्यायाः (परमम्) प्रकृष्टम् (व्योम) अ० ५।१७।६। वि+अव रक्षणे-मनिन्। विविधं रक्षास्थानम्। अवकाशम् ॥

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    विषय

    चार प्रश्न चार उत्तर

    पदार्थ

    १. हे आचार्य। मैं (त्वा) = आपसे (पृथिव्याः परम् अन्तं पृच्छामि) = इस पृथिवी के परले सिरे के विषय में पूछता हूँ, अथवा इस पृथिवी का पर अन्त अन्तिम उद्देश्य क्या है? आचार्य उत्तर देते हए कहते हैं कि (इयं वेदि:) = यह वेदि-जहाँ बैठे हुए हम विचार कर रहे हैं, (पृथिव्याः परः अन्त:) = पृथिवी का परला सिरा है। वर्तुलाकार होने से यह पृथिवी यहीं तो आकर समास भी होती है, और हमारा अन्तिम उद्देश्य यही है कि हम पृथिवी को यज्ञवेदि बना दें। यह देवयजनी ही तो है। २. मैं (वृष्णा:) = तेजस्वी (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले पुरुष की (रेत: पृच्छामि) = शक्ति के विषय में पूछता हूँ। उत्तर यह है कि (अयं सोम:) = यह वीर्य ही इस (वृष्णः अश्वस्य) = शक्तिशाली अनथक कार्यकर्ता पुरुष की (रेत:) = शक्ति है। यही उसे तेजस्वी व कार्यक्षम बनाती है। ३. (विश्वस्य भुवनस्य नाभिम्) =  सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की नाभि, बन्धनस्थान व केन्द्र को (पृच्छामि) = पूछता हूँ। उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि (अयं यज्ञ:) = यह यज्ञ ही तो (भुवनस्य नाभिः) = भुवन का केन्द्र है। यज्ञ ही सबका पालन कर रहा है। ४. अन्त में मैं (वाच:) = इस वेदवाणी के आधारभूत (परमं व्योम) = परमव्योम [आकाश] को (पृच्छामि) = पूछता हूँ। यह वेदवाणी शब्द किस आकाश का गुण है? उत्तर यह है कि (अयं ब्रह्मा) = यह सदा से बढ़ा हुआ प्रभु ही (वाच:) = वेदवाणी का (परमं व्योम) = परमव्योम है। ('ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्') । सब ऋचाएँ उस परमव्योम में ही स्थित व इनका कोश है।

    भावार्थ

    हम पृथिवी को यज्ञवेदि के रूप में परिणत कर दें। शरीर में शक्ति का रक्षण करते हुए तेजस्वी व अनथक कार्यकर्ता बनें। यज्ञ को ही पृथिवी का केन्द्र जानें और प्रभु को इस वेदवाणी का आधार जानते हुए प्रभु की उपासना से ज्ञान प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों।

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    भाषार्थ

    (त्वा) तुझ से (पृथिव्याः) पृथिवी के (परम् अन्तम्) परम अन्त को (पृच्छामि) मैं पूछता हूं, (पृच्छामि) मैं पूछता हूं (वृष्णः अश्वस्य) वर्षा करने वाले अश्व का रेतस् [वीर्य] कौन सा है ? (पृच्छामि) मैं पूछता हूं कि (विश्वस्य भुवनस्य) समग्र भूमि का (नाभिम्) केन्द्र कहां है ? (पृच्छामि) मैं पूछता हूं (वाचः) वाणी का (परमं व्योम) परम रक्षक कौन हैं ?

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    What is the highest ultimate end of the earth? I ask you. Where is the centre and centre-hold of the earth? I ask you. What is the life seed of the mighty generative force of Prajapati Ishvara? I ask. What is the ultimate source and origin from where the first boom of the Word arises? I ask you.

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    Translation

    I ask you, what is the farthest end of the earth? I ask you, what is the semen of the horse in heat ? I ask you, where is the navel of this world ? I ask you what is the highest space, where the speech abides ? (Also Rg. I,164.34)

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    Translation

    I, the disciple ask you O teacher as what is centre of this globe, I further ask as what is the power of mighty Ashva, the fire, [also want to know as what is centre of the universe and I finally enquire form you as what is the vast source of speech.

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    Translation

    O learned preceptor, I ask thee of Earth’s extremest limit. I ask thee of the infinite power of the Almighty, All-pervading God, What is the efficient cause of the whole universe, I ask thee. I ask of the highest abode of Vedic knowledge.

    Footnote

    See Rig, 1-164-34; Yajur, 23-61.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(पृच्छामि) अहं जिज्ञासे (त्वा) विद्वांसम् (परम्) सीमापरिच्छिन्नम् (अन्तम्) सीमाम् (पृथिव्याः) (पृच्छामि) (वृष्णः) अ० १।१२।१। वृषु सेचनप्रजनैश्येषु-कनिन्। ऐश्वर्यवतः। पराक्रमिणः (अश्वस्य) बलवतः पुरुषस्य (रेतः) वीर्यम् (पृच्छामि) (विश्वस्य) सर्वस्य (भुवनस्य) लोकस्य (नाभिम्) अ० १।१३।३। णह बन्धने−इञ्। मध्याकर्षणेन बन्धकम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० २३।६१। (पृच्छामि) (वाचः) वाण्या विद्यायाः (परमम्) प्रकृष्टम् (व्योम) अ० ५।१७।६। वि+अव रक्षणे-मनिन्। विविधं रक्षास्थानम्। अवकाशम् ॥

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