अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 23
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
यस्य॒ त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वा नि॒धिं रक्ष॑न्ति सर्व॒दा। नि॒धिं तम॒द्य को वे॑द॒ यं दे॑वा अभि॒रक्ष॑थ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । दे॒वा: । नि॒ऽधिम् । रक्ष॑न्ति । स॒र्व॒दा । नि॒ऽधिम् । तम् । अ॒द्य । क: । वे॒द॒ । यम् । दे॒वा॒: । अ॒भि॒ऽरक्ष॑थ ॥७.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य त्रयस्त्रिंशद्देवा निधिं रक्षन्ति सर्वदा। निधिं तमद्य को वेद यं देवा अभिरक्षथ ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । त्रय:ऽत्रिंशत् । देवा: । निऽधिम् । रक्षन्ति । सर्वदा । निऽधिम् । तम् । अद्य । क: । वेद । यम् । देवा: । अभिऽरक्षथ ॥७.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 23
मन्त्रार्थ -
(यस्य-निधि-त्रयस्त्रिंशत्-देवाः सदा रक्षन्ति ) जिस सर्वाधार परमात्मा के निधि-गुण शक्ति कृति सञ्चय की तेंतीस देव रक्षा करते हैं (देवाः अद्य तं निधिं कः वेद-यम् - अभिरक्षथ ) देवो- विद्वानों ! उस गुण शक्ति कृति सञ्चय को आज सृष्टिकाल में कौन जानता है कोई विरला ही जानता है जिसकी तुम सब प्रकार रक्षा करते हो ॥२३॥
टिप्पणी -
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष - ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
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