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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 37
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    क॒थं वातो॒ नेल॑यति क॒थं न र॑मते॒ मनः॑। किमापः॑ स॒त्यं प्रेप्स॑न्ती॒र्नेल॑यन्ति क॒दा च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒थम् । वात॑: । न । इ॒ल॒य॒ति॒ । क॒थम् । न । र॒म॒ते॒ । मन॑: । किम् । आप॑: । स॒त्यम् । प्र॒ऽईप्स॑न्ती: । न । इ॒ल॒य॒न्ति॒ । क॒दा । च॒न ॥७.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कथं वातो नेलयति कथं न रमते मनः। किमापः सत्यं प्रेप्सन्तीर्नेलयन्ति कदा चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कथम् । वात: । न । इलयति । कथम् । न । रमते । मन: । किम् । आप: । सत्यम् । प्रऽईप्सन्ती: । न । इलयन्ति । कदा । चन ॥७.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 37

    मन्त्रार्थ -
    (वातः कथं न इलयति) गतिशील वायु कैसे गति न कर कब अपनी गतिप्रवृत्ति को रोक सके (मनः कथं-न रमते) मन कैसे एक वस्तु में रमण नहीं कर रहा है- कैसे चञ्चलता को छोड़ दे (आपः किं सत्यं प्रप्सन्ती:-न कदाचनइलयन्ति ) जलधारायें-नदियां किस सत्य को चाहती हुई किसी समय गति न कर सकें अर्थात् इन सबका सत्य स्कम्भ जगदाधार परमात्मा है उसके नियम का आचरण करते हुये गति कर रहे हैं यह आकांक्षा है ॥३७॥

    विशेष - ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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