अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 43
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
तयो॑र॒हं प॑रि॒नृत्य॑न्त्योरिव॒ न वि जा॑नामि यत॒रा प॒रस्ता॑त्। पुमा॑नेनद्वय॒त्युद्गृ॑णत्ति॒ पुमा॑नेन॒द्वि ज॑भा॒राधि॒ नाके॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतयो॑: । अ॒हम् । प॒रि॒नृत्य॑न्त्यो:ऽइव । न । वि । जा॒ना॒मि॒ । य॒त॒रा । प॒रस्ता॑त् । पुमा॑न् । ए॒न॒त् । व॒य॒ति॒ । उत् । गृ॒ण॒त्ति॒ । पुमा॑न् । ए॒न॒त् । वि । ज॒भा॒र॒ । अधि॑ । नाके॑ ॥७.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
तयोरहं परिनृत्यन्त्योरिव न वि जानामि यतरा परस्तात्। पुमानेनद्वयत्युद्गृणत्ति पुमानेनद्वि जभाराधि नाके ॥
स्वर रहित पद पाठतयो: । अहम् । परिनृत्यन्त्यो:ऽइव । न । वि । जानामि । यतरा । परस्तात् । पुमान् । एनत् । वयति । उत् । गृणत्ति । पुमान् । एनत् । वि । जभार । अधि । नाके ॥७.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 43
मन्त्रार्थ -
(तयोः परिनृत्यन्त्योः-इव) उन दोनो रजः शक्ति वीर्यशक्तियों के (न विजानामि यतरा परस्तात्) इस वृत्त को नहीं समझता हूं कि जो कोई भी एक परभूत है अवर नहीं । यतः (पुमान्-एनत्-वयति-उद्गृत्ति ) इन शक्तियों के ऊपर पुरुष परमात्मा इस शरीर ताने को तानता है और उद्धरण करता है उखाड़ता है (पुमान्-एनत्-विजभार-अधिना के) पुरुष परमात्मा ही इस संसार ताने को विशेषरूप से पोषित करता है अपने सुखमय स्वरूप में वर्तमान हुआ ॥४३॥
टिप्पणी -
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष - ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
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