अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 40
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
अप॒ तस्य॑ ह॒तं तमो॒ व्यावृ॑त्तः॒ स पा॒प्मना॑। सर्वा॑णि॒ तस्मि॒ञ्ज्योतीं॑षि॒ यानि॒ त्रीणि॑ प्र॒जाप॑तौ ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । तस्य॑ । ह॒तम् । तम॑: । वि॒ऽआवृ॑त: । स: । पा॒प्मना॑ । सर्वा॑णि । तस्मि॑न् । ज्योति॑षि । यानि॑ । त्रीणि॑ । प्र॒जाऽप॑तौ ॥७.४०॥
स्वर रहित मन्त्र
अप तस्य हतं तमो व्यावृत्तः स पाप्मना। सर्वाणि तस्मिञ्ज्योतींषि यानि त्रीणि प्रजापतौ ॥
स्वर रहित पद पाठअप । तस्य । हतम् । तम: । विऽआवृत: । स: । पाप्मना । सर्वाणि । तस्मिन् । ज्योतिषि । यानि । त्रीणि । प्रजाऽपतौ ॥७.४०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 40
मन्त्रार्थ -
(तस्य तम:-अपहृतम्) उस परमात्मा के पास से अन्धकार पृथक् रहता है वहाँ अन्धकार का क्या काम ? उसके प्रकाशस्वरूप होने से (सः पाप्मना व्यावृत्तः) वह पाप से पाप सम्पर्क से भी पृथक् है (तस्मिन् प्रजापतौ) उस प्रजापालक प्रजास्वामी परमात्मा में (यानि त्रीणि ज्योतींषि) जो तीन ज्योतियां अग्नि विद्यत् सूर्य हैं वे सब प्रजापति परमात्मा के अधीन हैं वह उनका विधाता है ॥४०॥
टिप्पणी -
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष - ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
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