अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 41
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - आर्षी त्रिपदा गायत्री
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
यो वे॑त॒सं हि॑र॒ण्ययं॑ तिष्ठन्तं सलि॒ले वेद॑। स वै गुह्यः॑ प्र॒जाप॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । वे॒त॒सम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । तिष्ठ॑न्तम् । स॒लि॒ले । वेद॑ । स: । वै । गुह्य॑: । प्र॒जाऽप॑ति: ॥७.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वेतसं हिरण्ययं तिष्ठन्तं सलिले वेद। स वै गुह्यः प्रजापतिः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । वेतसम् । हिरण्ययम् । तिष्ठन्तम् । सलिले । वेद । स: । वै । गुह्य: । प्रजाऽपति: ॥७.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 41
मन्त्रार्थ -
(यः सलिले तिष्ठन्तं हिरण्ययं वेतसं वेद) जो सरणशील महान् संसार में ठहरे हुए हिरण्यय-हिररामय-सौवर्ण-सुनहरे गर्भ ब्रह्माण्डमूल वेतस-लघुतर-छोटे पौधे जैसे प्रसरणशील सन्ततिकर्म को प्राप्त किये हुए हैं (सः वै गुह्यः प्रजापतिः) वह गुहायोग्य-अन्दर व्याप्ति योग्य प्रजापति परमात्मा है वह विविध प्राणियों की उत्पत्ति करता है ॥४१॥
टिप्पणी -
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष - ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
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