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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरोऽतिजागतविराड्गर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    ब्रह्मचा॒रीष्णंश्च॑रति॒ रोद॑सी उ॒भे तस्मि॑न्दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति। स दा॑धार पृथि॒वीं दिवं॑ च॒ स आ॑चा॒र्यं तप॑सा पिपर्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । इ॒ष्णन् । च॒र॒ति॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । तस्मि॑न् । दे॒वा: । सम्ऽम॑नस: । भ॒व॒न्ति॒ । स: । दा॒धा॒र॒ । पृ॒थि॒वीम् । दिव॑म् । च॒ । स: । आ॒ऽचा॒र्य᳡म् । तप॑सा । पि॒प॒र्ति॒ ॥७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मचारीष्णंश्चरति रोदसी उभे तस्मिन्देवाः संमनसो भवन्ति। स दाधार पृथिवीं दिवं च स आचार्यं तपसा पिपर्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मऽचारी । इष्णन् । चरति । रोदसी इति । उभे इति । तस्मिन् । देवा: । सम्ऽमनस: । भवन्ति । स: । दाधार । पृथिवीम् । दिवम् । च । स: । आऽचार्यम् । तपसा । पिपर्ति ॥७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    मन्त्रार्थ -
    आदित्यपरक व्याख्या- (ब्रह्मचारी) ब्रह्म-परमात्मा के आदेश में चरणशील-विचरने वाला आदित्य (उभे रोदसी-इष्णन् चरति) दोनों द्यावापृथिवीद्युलोक और पृथिवीलोक में "रोदसी द्यावापृथिवीनाम" (निघं० ३।३०) पुनः पुनः विचरता है। (तस्मिन् देवा: सम्मनसः-भवन्ति) उस-इस आदित्य के आश्रय में द्युस्थान के ग्रह नक्षत्र “देवः" "द्यस्थानो भवतीति वा" (निरु० ७।१२) तथा अधोऽवस्थित अग्नि आदि देव समान भाव से अपनी अपनी शक्ति को धारण कर स्थिर होते हैं (सः पृथिवों दिवं च दाधार) वह पृथिवीलोक और द्यलोक को अपने आकर्षण और प्रकाश से धारण करता है (सः आचार्य तपसा पिपर्ति) वह समस्त रूप से चरण करने योग्य विश्वकर्त्ता परमात्मा कोकी आज्ञा को अपने प्रखर तापधर्म से पालता है। विद्यार्थी के विषय में-(ब्रह्मचारी) ब्रह्म-चेतनों में महान् परमात्मा, ज्ञानों में महान् वेद, शारीरिक धातुओं में महान् शुक्र वीर्य का चरणशील जिसका है वह ऐसा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी (उभे रोदसी इष्णान् चरति) दोनों नर-नारी दोनों जनक्षेत्रों को तथा ऊर्ध्व और अधः दोनों शरीर क्षेत्रों का पुनः पुनः सेवन रूप आचरण करता है (तस्मिन् देवा: सम्मनसः-भवन्ति ) उस ब्रह्मचर्य व्रती विद्यार्थी में दोनों पितृकुल मातृकुल के मान्य जन तथा ऊपर नीचे की इन्द्रियाँ समान भाव से दिव्य गुणों का सेवन करते हैं (सःपृथिवीं दिवं च दाधार) वह ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी माता और पिता को "द्यौर्मे पिता-माता पृथिवी महीयम्” (ऋ० १।१४।३३) अपने ब्रह्मचर्य रूप यश से धारण करता है (सः आचार्य तपसा पिपर्ति ) वह ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी विद्याक्षेत्र के आचरणीय आचार्य को स्वज्ञानमय सद्वृत्त से जनस्थानों में प्रसिद्ध करता है उनके यश को पालित करता है ॥ १ ॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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