अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 10
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
अ॒र्वाग॒न्यः प॒रो अ॒न्यो दि॒वस्पृ॒ष्ठाद्गुहा॑ नि॒धी निहि॑तौ॒ ब्राह्म॑णस्य। तौ र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तत्केव॑लं कृणुते॒ ब्रह्म॑ वि॒द्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाक् । अ॒न्य: । प॒र: । अ॒न्य: । दि॒व: । पृ॒ष्ठात् । गुहा॑ । नि॒धी इति॑ । नि॒ऽधी । निऽहि॑तौ । ब्राह्म॑णस्य । तौ । र॒क्ष॒ति॒ । तप॑सा । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । तत् । केव॑लम् । कृ॒णु॒ते॒ । ब्रह्म॑ । वि॒द्वान् ॥७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वागन्यः परो अन्यो दिवस्पृष्ठाद्गुहा निधी निहितौ ब्राह्मणस्य। तौ रक्षति तपसा ब्रह्मचारी तत्केवलं कृणुते ब्रह्म विद्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाक् । अन्य: । पर: । अन्य: । दिव: । पृष्ठात् । गुहा । निधी इति । निऽधी । निऽहितौ । ब्राह्मणस्य । तौ । रक्षति । तपसा । ब्रह्मऽचारी । तत् । केवलम् । कृणुते । ब्रह्म । विद्वान् ॥७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 10
मन्त्रार्थ -
आदित्यपरक व्याख्या- से अर्थात् आदित्यमण्डल (दिवस्पृष्ठात्) द्युलोक के पृष्ठ से (अर्वाक्-अन्यः) उरली दिशा में अर्थात् पृथिवी पर अन्य प्रकार का अन्य कार्य करने वाला गुण है; (परः अन्यः) आदित्यमण्डल से परे या पृथिवीलोक से परे द्युलोक में अन्य प्रकार का अन्य कार्य करने वाला गुण है (गुहा निहितौ निधी ब्राह्मणस्य) वे दोनों गुण उस आदित्य की गुहा में गुप्त या रखे हैं जो कि ब्राह्मण अर्थात् ज्योतिर्विद्यावेत्ता विद्वानों के कोष रूप में (ब्रह्मचारी तौ तपसा रक्षति) श्रादित्य उन दोनों की अपने तापसे रक्षा करता है (तत् केवलं ब्रह्म विद्वान् कृणुते) जो उस केवल ब्रह्म मात्र आकाश को प्राप्त करने के हेतु "ब्रह्म वै वाचः परमं व्योम" (तै० ३।६।५।५) उन दोनों गुणों को आत्मसात् करता है । विद्यार्थी के विषय में- (दिवस्पृष्टात्) "पादो अस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” (ऋ० १०।६०।३) अमृत आत्मा का मोक्षरूप से (अर्वाक्-अन्यः) संसारनिर्वाहक अभ्युदयसाधक गुण अन्य है जो आचार्य से लिया जाता है पुनः (परः अन्यः) पर अर्थात् उत्कृष्ट परमात्मदर्शन साधक या निःश्रेयस साधक गुण अन्य है जो आचार्य से लिया जाता है (गुहा निहितौ निधी ब्राह्मणस्य) उस ब्रह्मचर्यव्रती जन की गुहा में- अन्तःकरण में रखे जाते हैं जो ब्राह्मण अर्थात् मुमुक्षु के कोपभूत हैं (तौ ब्रह्मचारी तपसा रक्षति) उन दोनों अभ्युदय और निःन्न यस साधक गुणों को ब्रह्मचर्यव्रती जन आचार्य की सेवा में रहनेरूप तप से रक्षा करता है (तत् केवलं ब्रह्म विद्वान् कृणुते) उस केवल-ब्रह्मपरमात्मा को जानने के हेतु कोषभूत गुणों को आत्मसात् करता है ॥१०॥
विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
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