अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
इ॒यं स॒मित्पृ॑थि॒वी द्यौर्द्वि॒तीयो॒तान्तरि॑क्षं स॒मिधा॑ पृणाति। ब्र॑ह्मचा॒री स॒मिधा॒ मेख॑लया॒ श्रमे॑ण लो॒कांस्तप॑सा पिपर्ति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । स॒म्ऽइत् । पृ॒थि॒वी । द्यौ: । द्वि॒तीया॑ । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षम् । स॒म्ऽइधा॑ । पृ॒णा॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । स॒म्ऽइधा॑ । मेख॑लया । श्रमे॑ण । लो॒कान् । तप॑सा । पि॒प॒र्ति॒ ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं समित्पृथिवी द्यौर्द्वितीयोतान्तरिक्षं समिधा पृणाति। ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्ति ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । सम्ऽइत् । पृथिवी । द्यौ: । द्वितीया । उत । अन्तरिक्षम् । सम्ऽइधा । पृणाति । ब्रह्मऽचारी । सम्ऽइधा । मेखलया । श्रमेण । लोकान् । तपसा । पिपर्ति ॥७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
मन्त्रार्थ -
आदित्यपरक व्याख्या- (इयं पृथिवी समित्) यह पृथिवी आदित्य की एक समिधा है जिसको आदित्य अपने प्रकाश से दीप्त करता है (द्वितीया द्यौ:) दूसरी समिधा द्युलोक है जिसको आदित्य स्वप्रकाश से प्रकाशित करता है (उत-अन्तरिक्षम्) अपि च अन्तरिक्ष तीसरी समिधा है (समिधा पृणाति) इस प्रकार तीनों समिधाओं से अपने को पूर्ण प्रकाशमान प्रदर्शित करता है (ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण तपसा) उस त्रिविध समिधा से स्वाश्रयभूत मेखला-मर्यादा से आकर्षण बल से और प्रखर ताप से (लोकान् पिपत) चन्द्र आदि लोकों और प्राणियों का पालन करता है। विद्यार्थी के विषय में- (इयं समित् पृथिवी) ब्रह्मचारी की प्रथम समिधा पृथिवी अर्थात् माता है जिससे ब्रह्मचर्यव्रती दीप्त होता है (द्वितीया द्यौः) दूसरी समिधा द्यौ अर्थात् पिता है इससे ब्रह्मचर्यव्रती दीप्त होता है (उत-अन्तरिक्षम्) और अन्तरिक्ष अर्थात् आचार्य तीसरी समिधा है (समिधा पिपर्ति) एवं माता, पिता और आचार्य तीन समिधाओं से स्वव्रत ज्ञान और सदाचरण द्वारा अपने को पूरित करता है (ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण तपसा) ब्रह्मचर्यव्रती जन उस त्रिविध समिधा से कौपीन से शारीरिक श्रम से और ज्ञान-प्रकाश से (लोकान् पिपर्ति) जनों को पूरित करता है - प्रभावित - पालित करता है ॥४॥
विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
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