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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    आ॑चा॒र्यो ब्रह्मचा॒री ब्र॑ह्मचा॒री प्र॒जाप॑तिः। प्र॒जाप॑ति॒र्वि रा॑जति वि॒राडिन्द्रो॑ऽभवद्व॒शी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽचा॒र्य᳡: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । प्र॒जाऽप॑ति: । प्र॒जाऽप॑ति: । वि । रा॒ज॒ति॒ । वि॒ऽराट् । इन्द्र॑: । अ॒भ॒व॒त् । व॒शी॥७.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आचार्यो ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी प्रजापतिः। प्रजापतिर्वि राजति विराडिन्द्रोऽभवद्वशी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽचार्य: । ब्रह्मऽचारी । ब्रह्मऽचारी । प्रजाऽपति: । प्रजाऽपति: । वि । राजति । विऽराट् । इन्द्र: । अभवत् । वशी॥७.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 16

    मन्त्रार्थ -
    (आचार्य:-ब्रह्मचारी) वेदज्ञान के ग्रहणार्थ भलीभाँति सेवा करने योग्य आचार्य ही ब्रह्मचारी जैसे—पिता ही पुत्र होता है पिता के शरीर-धर्मो का दृढ करने वाला होने से "आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्" (निरु० ३।४) तथैव आचार्य के गुणों का ग्रहण कर्त्ता होने से ब्रह्मचारी को आचार्य कहा है पुनः आचार्य के अनन्तर (ब्रह्मचारी प्रजापतिः) वह ब्रह्मचारी प्रजामात्र के अध्यापन से प्रजापति होता है आचार्य पद की अपेक्षा से ऊँचे पद वाला हो जाता है जैसे- बृहदारण्यक उपनिषद् में देवमनुष्य असुरों का अध्यापक प्रजापति कहा गया है । (प्रजापतिः- विराजति) प्रजापति पद वाला होकर। बिना प्रतिबन्ध के अपने शिष्यों को और जो अपने शिष्य भी नहीं हैं उनको भी ज्ञान प्रदान करके विराट् पद भागी महार्षि बनता है, सबके हृदयों में विराजमान होने से सम्मान पाने से । (पुनः-विराट्-इन्द्रः-वशी-अभवत्) वह विराट पदभागी सर्वत्र भ्रमण करके सर्वहित उपदेश प्रदान द्वारा सबको वश में अर्थात् अनुकूल बना करके इन्द्र ईश्वर की भांति परम ऋषि हो जाता है । इस प्रकार यह ब्राह्मण के पदों का विवेचन मन्त्र में आया ॥१६॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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