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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - उरोबृहती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    आ॑चा॒र्य उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं॑ कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। तं रात्री॑स्ति॒स्र उ॒दरे॑ बिभर्ति॒ तं जा॒तं द्रष्टु॑मभि॒संय॑न्ति दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽचा॒र्य᳡: । उ॒प॒ऽनय॑मान: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑म् । कृ॒णु॒ते॒ । गर्भ॑म् । अ॒न्त: । तम् । रात्री॑: । ति॒स्र: । उ॒दरे॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । तम् । जा॒तम् । द्रष्टु॑म् । अ॒भि॒ऽसंय॑न्ति । दे॒वा: ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽचार्य: । उपऽनयमान: । ब्रह्मऽचारिणम् । कृणुते । गर्भम् । अन्त: । तम् । रात्री: । तिस्र: । उदरे । बिभर्ति । तम् । जातम् । द्रष्टुम् । अभिऽसंयन्ति । देवा: ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 3

    मन्त्रार्थ -
    (आचार्य:) अपने व्यक्तित्व के आश्रय योग्य विश्वकर्ता परमात्मा (ब्रह्मचारिणम्) आदित्य को (उपनयमान:) उपाश्रयः में संस्थापन के हेतु (गर्भम्-अन्त: कृणुते) स्वकीय ग्रहणबल के अन्दर धारण करता है (तं तिस्रः-रात्री:-उदरे बिभर्ति) उसे द्युलोक, अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोकों में वर्तमान रात्रिरूप अन्धकारमय आवरण अवसरपर्यन्त अपने अन्दर धारण करता है (तं जातं द्रष्टुं देवा:-अभिसंयन्ति) प्रकटीभूत प्रकाशमान आदित्य को देखने के लिए आदि देव परम ऋषि अभिलक्षित करते हैं । विद्यार्थी के विषय में-(आचार्यः) विद्या प्राप्ति के लिए आचरण करने योग्य विद्वान् आचार्य (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचव्रती जन को (उप-नयमान:) विद्याध्ययन के लिये अपने आश्रय में लेने के हेतु (गर्भम् अन्तः कृणुते) गर्भ की भांति या गर्भरूप अपने अन्दर अङ्गीकार करता है (तं तिस्रः-रात्री:-उदरे विभर्ति) उस ब्रह्मचर्यव्रती नवदीक्षित को वेदत्रयी उसके प्रतिनिधिभूत सावित्री के शिक्षण के लिये स्वाश्रय में तीन दिन रखता है "त्रिः सावित्रीमधीते" (बारह ग्र० सू० ६) पुन: (तं जातं द्रष्टु देवा:-अभिसंयन्ति) आचार्य के उपाश्रय से बाहिर आये हुए सावित्री से प्राप्त ज्ञानसंस्कार वाले ब्रह्मचारी को देखने के लिये पितृकुलीय और गुरुकुलीय पुराने तथा नवीन विद्वान् अनुकूल प्राप्त होते हैं ॥३॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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