अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - विराड्गर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
ब्र॑ह्मचा॒री ज॒नय॒न्ब्रह्मा॒पो लो॒कं प्र॒जाप॑तिं परमे॒ष्ठिनं॑ वि॒राज॑म्। गर्भो॑ भू॒त्वामृत॑स्य॒ योना॒विन्द्रो॑ ह भू॒त्वासु॑रांस्ततर्ह ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । ज॒नय॑न् । ब्रह्म॑ । अ॒प: । लो॒कम् । प्र॒जाऽप॑तिम् । प॒र॒मे॒ऽन॑म् । विऽराज॑म् । गर्भ॑: । भू॒त्वा । अ॒मृत॑स्य । योनौ॑ । इन्द्र॑: । ह॒ । भू॒त्वा । असु॑रान् । त॒त॒र्ह॒ ॥७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचारी जनयन्ब्रह्मापो लोकं प्रजापतिं परमेष्ठिनं विराजम्। गर्भो भूत्वामृतस्य योनाविन्द्रो ह भूत्वासुरांस्ततर्ह ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचारी । जनयन् । ब्रह्म । अप: । लोकम् । प्रजाऽपतिम् । परमेऽनम् । विऽराजम् । गर्भ: । भूत्वा । अमृतस्य । योनौ । इन्द्र: । ह । भूत्वा । असुरान् । ततर्ह ॥७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
मन्त्रार्थ -
आदित्यपरक व्याख्या-ब्रह्मचारी) आदित्य (ब्रह्म-अप:-लोकं प्रजापति परमेष्ठिनं विराजं जनयन्) ब्रह्म अर्थात् ज्ञानाग्नि को, "अग्नि वै ब्रह्म" (शत० ८।५।१।१२) पुनः जलीय लोक, प्रजापति- पृथिवी लोक को "प्राजापत्यो वा अय भूलोकः" ( तै० १ । ३ । ७ । ५ ) परमेष्ठी अर्थात् द्युलोक को, विराट् अन्तरिक्ष लोक को प्रकट करता है; जबकि (अमृतस्य योनौ गर्भ:-भूत्वा) अनश्वर परमात्मा के आश्रय में गर्भ- हिरण्यगर्भ होकर पुन: (इन्द्र:भूत्वा असुरान् ततर्ह) ऐश्वर्यवान् होकर प्रचण्ड तापवान होकर असुरों- रोग करने वाले दोषों और अन्धकारादि को विनष्ट करता है । विद्यार्थी के विषय मॅ- (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्यव्रती जन (ब्रह्म जनयन्) अपने अन्दर वेदज्ञान को उत्पन्न करता हुआ (अपः-लोकं प्रजापति परमेष्ठिनं विराजम्) जलीय लोक को, पृथिवी लोक को, द्युलोक को अन्तरिक्ष लोक को अर्थात् उनके गुणों को अपने आत्मा में प्रकट करता है जब (अमृतस्य योनौ गर्भ:-भूत्वा) एकरस नित्य परमात्मा के आश्रय में उसके गुणों से गर्भित होकर पुनः (इन्द्र:-भूत्वा असुरान् ततर्ह) इन्द्र अर्थात् आत्मा केवल आत्मा होकर परज्योति स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो "परं ज्योतिरूपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्यद्यते" (छान्दो० ८।१२।३) असुरों अर्थात् विविध, मल, रोग, दुःख, शत्रुओं को नष्ट करता है ॥७॥
विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इस भाष्य को एडिट करें