अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 22
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
पृथ॒क्सर्वे॑ प्राजाप॒त्याः प्रा॒णाना॒त्मसु॑ बिभ्रति। तान्त्सर्वा॒न्ब्रह्म॑ रक्षति ब्रह्मचा॒रिण्याभृ॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठपृथ॑क् । सर्वे॑ । प्रा॒जा॒ऽप॒त्या: । प्रा॒णान् । आ॒त्मऽसु॑ । बि॒भ्र॒ति॒ । तान् । सर्वा॑न् । ब्रह्म॑ । र॒क्ष॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिणि॑ । आऽभृ॑तम् ॥७.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथक्सर्वे प्राजापत्याः प्राणानात्मसु बिभ्रति। तान्त्सर्वान्ब्रह्म रक्षति ब्रह्मचारिण्याभृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठपृथक् । सर्वे । प्राजाऽपत्या: । प्राणान् । आत्मऽसु । बिभ्रति । तान् । सर्वान् । ब्रह्म । रक्षति । ब्रह्मऽचारिणि । आऽभृतम् ॥७.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 22
मन्त्रार्थ -
(सर्वे प्राजापत्याः-आत्मसु पृथक् प्राणान् विभ्रति) प्रजापति परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुए सब मनुष्य, पशु, पक्षी और वनस्पतियाँ अपने अन्दर पृथक्-पृथक् अपने-अपने योग्य प्राण को धारण करते हैं (तान् सर्वान् ब्रह्मचारिणि भृतं ब्रह्म रक्षति) उन सब प्राणों को आदित्य में भली भांति व्याप्त ब्रह्म अर्थात् परमात्मा सुरक्षित रखता है "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम् । ओ३म् खं ब्रह्म" (यजु० ४०।१७) तथा ब्रह्मचर्यव्रती जन में जो परिपूर्ण ब्रह्म है वह उन योग्य प्राणों की रक्षा करता है ॥२२॥
विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
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