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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरोऽतिजागता विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    आ॑चा॒र्यस्ततक्ष॒ नभ॑सी उ॒भे इ॒मे उ॒र्वी ग॑म्भी॒रे पृ॑थि॒वीं दिवं॑ च। ते र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तस्मि॑न्दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽचा॒र्य᳡: । त॒त॒क्ष॒ । नभ॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । उ॒र्वी इति॑ । ग॒म्भी॒रे इति॑ । पृ॒थि॒वीम् । दिव॑म् । च॒ । ते इति॑ । र॒क्ष॒ति॒ । तप॑सा । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । तस्मि॑न् । दे॒वा: । सम्ऽम॑नस: । भ॒व॒न्ति॒ ॥७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आचार्यस्ततक्ष नभसी उभे इमे उर्वी गम्भीरे पृथिवीं दिवं च। ते रक्षति तपसा ब्रह्मचारी तस्मिन्देवाः संमनसो भवन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽचार्य: । ततक्ष । नभसी इति । उभे इति । इमे इति । उर्वी इति । गम्भीरे इति । पृथिवीम् । दिवम् । च । ते इति । रक्षति । तपसा । ब्रह्मऽचारी । तस्मिन् । देवा: । सम्ऽमनस: । भवन्ति ॥७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 8

    मन्त्रार्थ -
    आदित्यपरक व्याख्या- (आचार्य:) विश्व का आश्रय योग्य विश्वकर्मा परमात्मा (उभे इमे उर्वी गम्भीरे नभसी) ये दोनों बडे ऊपर नीचे गहन आकाश क्षेत्र। तथा (पृथिवीं दिवं च) इन दोनों क्षेत्रों में पृथिवीलोक और द्युलोक को (ततक्ष) प्रकाशित किया (ब्रह्मचारी ते तपसा रक्षति) वह आदित्य उन दोनों को सब प्रकार से रक्षित करता है (तस्मिन् देवाः संमनसः भवन्ति) उस आदित्य में होने वाले दिव्य पदार्थ प्रकाश ग्रहण और प्रदान में एकस्वभाव रहते हैं । विद्यार्थी के विषय में- (आचार्यः) वेदाचार्य (उभे इमे उवीं गम्भीरे नमसी) ये दोनों महान् गहन ऊपर नीचे स्थित ज्ञान और कर्म के अवकाश क्षेत्र तथा (पृथिर्वी दिवं च) इन दोनों क्षेत्रों में स्थित मूर्द्धा-मस्तिष्क और पाद पैर जो ज्ञान और कर्म के साधन हैं उनको "द्यौर्वा उत्तरं सधस्थम्" (शत० ८।६।३।२३) “यत्कपालमासीत्सा द्यौरभवत्" (शत० ६।१।२।३) "मूर्धा यद् द्यौः” (शत० १०।६।१।८) दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२) "पादौ यत्पृिथिवी" (श० १०।६।१।४) "इयं पृथिवी खलु वै प्रतिष्ठा" (शत० २।२।१।१०) “भूमिः प्रमा" (अथर्व० १०।७।३२) (ततक्ष) प्रकाशित किया- सम्पन्न किया (ब्रह्मचारी ते तपसा रक्षति) ब्रह्मचर्यव्रती जन इन दोनों की यथावत् रक्षा करता है ॥८॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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