अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
अ॒मा घृ॒तं कृ॑णुते॒ केव॑लमाचा॒र्यो भू॒त्वा वरु॑णो॒ यद्य॒दैच्छ॑त्प्र॒जाप॑तौ। तद्ब्र॑ह्मचा॒री प्राय॑च्छ॒त्स्वान्मि॒त्रो अध्या॒त्मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मा । घृ॒तम् । कु॒णु॒ते॒ । केव॑लम् । आ॒ऽचा॒र्य᳡: । भू॒त्वा । वरु॑ण: । यत्ऽय॑त् । ऐच्छ॑त् । प्र॒जाऽप॑तौ । तत् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । प्र । अ॒य॒च्छ॒त् । स्वान् । मि॒त्र: । अधि॑ । आ॒त्मन॑: ॥७.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद्यदैच्छत्प्रजापतौ। तद्ब्रह्मचारी प्रायच्छत्स्वान्मित्रो अध्यात्मनः ॥
स्वर रहित पद पाठअमा । घृतम् । कुणुते । केवलम् । आऽचार्य: । भूत्वा । वरुण: । यत्ऽयत् । ऐच्छत् । प्रजाऽपतौ । तत् । ब्रह्मऽचारी । प्र । अयच्छत् । स्वान् । मित्र: । अधि । आत्मन: ॥७.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 15
मन्त्रार्थ -
आदित्यपरक व्याख्या- (वरुणः-आचार्यः भूत्वा) समस्त गोलों को चरने वाला आदित्य का परिधिमण्डल, भलिभांति सहन करने योग्य आधार बनकर (प्रजापतौ यत-यत् केवलं घृतम्-ऐच्छत्-अमा कृणुते) प्रजापति के निमित्त 'निमित्त सप्तमी' अर्थात् प्रजा के पालक आदित्य के लिए जो जो मात्र दीप्ति का द्रव्य या बल "घृ क्षरण दीप्त्योः” (जुहोत्यादि०) को चाहता है वह आदित्य के साथ अपने को प्रकट करता है (ब्रह्मचारी मित्रः स्वात्-अधि आत्मनः-तत् प्रायच्छत्) आदित्य प्रेरक होकर "मि प्रक्षेपणे" (स्वादि०) स्व अन्तःस्थल से उस दीप्तिकर द्रव्य या बल को प्रजाओं के लिए प्रदान करता है । विद्यार्थी के विषय में- (वरुण: आचार्य:-भूत्वा) ब्रह्मचर्यव्रती को वरने वाला उसका आचार्य होकर (प्रजापतौ-यत्-यत् केवलं घृतम्-ऐच्छत् अमा कृणुते) प्रजापालक के निमित्त अर्थात् भावी प्रजाओं का निर्माण करने वाले ब्रह्मचर्य व्रती के लिए जो जो केवल शुद्ध दीप्तिकर ज्ञान को चाहता है उस उसको ब्रह्मचर्यव्रती के साथ अपनी शरण में लेने के समय से ही सम्पादित करता है (ब्रह्मचारी मित्रः स्वात् अधि-आत्मनः तत् प्रायच्छत्) ब्रह्मचर्य व्रती जन अन्यो को प्रेरणा देने वाला होकर अपने अन्तरात्मा से या अन्तःकरण से उस दीप्तिकर ज्ञान को मनुष्यों के लिए प्रदान करता है ॥१५॥
विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
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