अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
इ॒मां भूमिं॑ पृथि॒वीं ब्र॑ह्मचा॒री भि॒क्षामा ज॑भार प्रथ॒मो दिवं॑ च। ते कृ॒त्वा स॒मिधा॒वुपा॑स्ते॒ तयो॒रार्पि॑ता॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । भूमि॑म् । पृ॒थि॒वीम् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । भि॒क्षाम् । आ । ज॒भा॒र॒ । प्र॒थ॒म: । दिव॑म् । च॒ । ते इति॑ । कृ॒त्वा । स॒म्ऽइधौ॑ । उप॑ । आ॒स्ते॒ । तयो॑: । आर्पि॑ता । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
इमां भूमिं पृथिवीं ब्रह्मचारी भिक्षामा जभार प्रथमो दिवं च। ते कृत्वा समिधावुपास्ते तयोरार्पिता भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । भूमिम् । पृथिवीम् । ब्रह्मऽचारी । भिक्षाम् । आ । जभार । प्रथम: । दिवम् । च । ते इति । कृत्वा । सम्ऽइधौ । उप । आस्ते । तयो: । आर्पिता । भुवनानि । विश्वा ॥७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
मन्त्रार्थ -
आदित्यपरक व्याख्या- (प्रथमः-ब्रह्मचारी) प्रमुख होता हुआ आदित्य (इमां पृथिवीं भूमिं दिवं च भिक्षाम्-आजभार ) इस प्रथित भूमि को और द्युलोक को भिक्षारूप से उनके अवकाश को स्वप्रचारनिर्वाह के लिए आहरण किया- ग्रहण किया पुन: (ते समिधौ कृत्वा-उपास्ते) उन दोनों की समिधाएं मानकर अग्नि को प्रवृद्ध करता है (तयो:-विश्वा भुवनानि अर्पिता) उन दोनों के बीच स्थित सारे भूत सम्यक् आश्रित हैं । विद्यार्थी के विषय में (प्रथमः-ब्रह्मचारी) श्रेष्ठ या नवीन ब्रह्मचर्यव्रती जन (इमां भूमिं पृथिवीं दिवं च भिक्षाम् आजभार) इस जन्मदात्री माता को तथा जनक पिता को भिक्षा मांगना है अर्थात् माता से और पिता से भिक्षा ग्रहण करता है, पुन: वह (ते समिधौ कृत्वा-उपास्ते) माता से पिता से प्राप्त की गई भिक्षाओं को समिधा मानकर आचार्यरूप पदवी को तथा ज्ञानाग्नि को सेवन करता है (तयोः-विश्वा भुवनानि अर्पिता) इन प्राप्त भिक्षा के आश्रय सारे भूत प्राणि ज्ञान, दान, दयाप्राप्ति के लिए आश्रित हैं ॥९॥
विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
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