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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    ब्र॑ह्मचा॒र्येति स॒मिधा॒ समि॑द्धः॒ कार्ष्णं॒ वसा॑नो दीक्षि॒तो दी॒र्घश्म॑श्रुः। स स॒द्य ए॑ति॒ पूर्व॑स्मा॒दुत्त॑रं समु॒द्रं लो॒कान्त्सं॒गृभ्य॒ मुहु॑रा॒चरि॑क्रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । ए॒ति॒ । स॒म्ऽइधा॑ । सम्ऽइ॑ध्द: । कार्ष्ण॑म् । वसा॑न: । दी॒क्षि॒त: । दी॒र्घऽश्म॑श्रु: । स: । स॒द्य: । ए॒ति॒ । पूर्व॑स्मात् । उत्त॑रम् । स॒मु॒द्रम् । लो॒कान् । सम्ऽगृभ्य॑ । मुहु॑: । आ॒ऽचरि॑क्रत् ॥७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मचार्येति समिधा समिद्धः कार्ष्णं वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रुः। स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहुराचरिक्रत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मऽचारी । एति । सम्ऽइधा । सम्ऽइध्द: । कार्ष्णम् । वसान: । दीक्षित: । दीर्घऽश्मश्रु: । स: । सद्य: । एति । पूर्वस्मात् । उत्तरम् । समुद्रम् । लोकान् । सम्ऽगृभ्य । मुहु: । आऽचरिक्रत् ॥७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 6

    मन्त्रार्थ -
    आदित्यपरक व्याख्या-(ब्रह्मचारी समिधा समिद्धः) आदित्य त्रिविध समिधा अर्थात् पृथिवी अन्तरिक्ष और द्युलोक से सम्यक् प्रदीप्त हुआ आलोकित हुआ (कां वसानः) अपने अन्तर्वर्ती कृष्ण भाग का आच्छादन करता हुआ "अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सम्भरन्ति” (ऋ० १।११५।५) कृष्ण भाग ही प्रज्वलित होकर प्रकाश धर्म वाला होता है (दीक्षितःदीर्घश्मश्रुः) ज्योति से दीक्षित अर्थात् ज्योतिष्मान् हुआ दीर्घ रश्मिवाला होता है "एष आदित्य दीर्घश्मश्रुः" (गो० पू० १।११) (सः सद्यः-पूर्वस्मात्-उतरं समुद्रम् एति) वह आदित्य तुरन्त ही पूर्वदिग्वर्ती अन्तरिक्ष से "समुद्रमन्तरिक्षम्” (जिघं० १।३). उत्तर समुद्र अर्थात् क्षितिज संलग्न आकाश को प्राप्त होता है (लोकान् सङ्गृभ्य-मुहुः-आचरिक्रत्) पृथिवी चन्द्र आदि लोकों को अपने प्रकाश में ग्रहण कर पुनः पुनः सम्यक् प्रकाशित होने का आचरण करता है । विद्यार्थी के विषय में- (ब्रह्मचारी समिधा समिद्ध:) ब्रह्मचर्य व्रती जन माता पिता और आचार्य तीन प्रकार की ज्ञानप्रदीप्ति कर समिधा से सन्दीप्त हो (कां वसानः) विद्या, बुद्धि, बल का आकर्षण तथा आचार्य की छाया को अपने ऊपर धारण करता हुआ जैसे "यस्य छायाऽमृतम्” (ऋ० १०।१२१।२) (दीक्षित:दीर्घश्मश्रुः) व्रतदीक्षा से संस्कृत दाढ़ी मूंछों सहित अर्थात् केशशृंगाररहित होता हुआ (सः सद्यः पूर्वस्मात्-उत्तरं समुद्रम्-पति) वह विद्या समाप्त कर पूर्वविद्यासमुद्र से शीघ्र अग्रिम संसारसमुद्र. को प्राप्त होता है; अधीत विद्या के प्रचारार्थ (लोकान् संगृभ्य मुहुः-आचरिक्रत्) जनों को मनुष्यों कोलोगों को संगत कर एकत्र कर पुनः पुनः सम्यक् आचार शिक्षण करता है ॥६॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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