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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 18
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण क॒न्या॒ युवा॑नं विन्दते॒ पति॑म्। अ॑न॒ड्वान्ब्र॑ह्म॒चर्ये॒णाश्वो॑ घा॒सं जि॑गीर्षति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । क॒न्या᳡ । युवा॑नम् । वि॒न्द॒ते॒ । पति॑म् । अ॒न॒ड्वान् । ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । अश्व॑: । घा॒सम् । जि॒गी॒र्ष॒ति॒ ॥७.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्। अनड्वान्ब्रह्मचर्येणाश्वो घासं जिगीर्षति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मऽचर्येण । कन्या । युवानम् । विन्दते । पतिम् । अनड्वान् । ब्रह्मऽचर्येण । अश्व: । घासम् । जिगीर्षति ॥७.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 18

    मन्त्रार्थ -
    (ब्रह्मचर्येण कन्या) ब्रह्मचर्य व्रतरूप संयम से कान्ता दीप्त-कुमारी (युवानं पतिं विन्दते) युवा पति को प्राप्त होती है तथा (ब्रह्मचर्येण-अनड्वान् अश्वः) ब्रह्मचर्य रूप संयम से ही कुमार अनड्वान्-वृषभ की भाँति गृहस्थ भार को वहन कर सकता तथा घोडे की भांति गृहस्थ निर्वाहक बल से सम्पन्न हो सकता है। और (घासं जिगीषति ) घास अर्थात् भक्षण योग्य घास के समान भोग प्रद-भोगसाधन वीर्य धातु को अपने अन्दर पचाने की इच्छा करता है-धारण करने में समर्थ होता है । ॥१८॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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