अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
शुची॑ ते च॒क्रेया॒त्या व्या॒नो अ॑क्ष॒ आह॑तः। अनो॑ मन॒स्मयं॑ सू॒र्यारो॑हत्प्रय॒ती पति॑म्॥
स्वर सहित पद पाठशुची॒ इति॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । या॒त्या: । वि॒ऽआ॒न: । अक्ष॑: । आऽह॑त: । अन॑: । म॒न॒स्मय॑म् । सू॒र्या । आ । अ॒रो॒ह॒त् । प्र॒ऽय॒ती । पति॑म् ॥१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
शुची ते चक्रेयात्या व्यानो अक्ष आहतः। अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम्॥
स्वर रहित पद पाठशुची इति । ते । चक्रे इति । यात्या: । विऽआन: । अक्ष: । आऽहत: । अन: । मनस्मयम् । सूर्या । आ । अरोहत् । प्रऽयती । पतिम् ॥१.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
विषय - 'प्राण, अपान, व्यान' की ठीक स्थिति
पदार्थ -
१. पति प्रयती पतिगृह की ओर जाती हुई (सूर्या) = सूर्या (मनस्मयं अन:) = मन के बने रथ पर (आरोहत्) = आरूढ़ हुई, अर्थात् मन में उत्साह व प्रेम से परिपूर्ण होकर पतिगृह को हृदय से चाहती हुई चली। २. उस समय (यात्या:) = जाती हुई सूर्या के रथ के (ते चक्रे) = वे चक्र शुषी-पवित्र प्राणापान ही थे और उन प्राणापानरूप चक्रों में (व्यान: अक्षः आहत:) = व्यान अक्ष के रूप में लगा हुआ था [प्राणापाणे पवित्रे-तै०३.२.४.४]। प्राणापान ही शुची व पवित्र हैं। ये यदि रथ के पहिये हैं तो व्यान उनका अक्ष है। भूः' इति प्राणा:, भुवः' इति अपानाः, 'स्वः', इति व्यान:-इन ब्राह्मणग्रन्थों के शब्दों में 'भूः, भुवः, स्वः' ही प्राणापान व व्यान हैं। अध्यात्म में 'भूः' शरीर है, "भुवः' हृदयान्तरिक्ष है, 'स्व:' मस्तिष्करूप घुलोक है। सूर्या के ये तीनों ही लोक बड़े ठीक हैं। इनको ठीक बनाकर वह मनोमय रथ पर आरूढ़ हुई है। ये रथ ही उसे पतिगृह की ओर ले जा रहा है।
भावार्थ -
सूर्या के 'प्राण, अपान, व्यान' ठीक कार्य करनेवाले हैं, अतएव वह पूर्ण स्वस्थ व उल्लासमय मनवाली है। प्रसन्नता से पतिगृह की ओर चली है।
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