अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 64
सूक्त - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
ब्रह्माप॑रंयु॒ज्यतां॒ ब्रह्म॒ पूर्वं॒ ब्रह्मा॑न्त॒तो म॑ध्य॒तो ब्रह्म॑ स॒र्वतः॑।अ॑नाव्या॒धां दे॑वपु॒रां प्र॒पद्य॑ शि॒वा स्यो॒ना प॑तिलो॒के वि रा॑ज ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ । अप॑रम् । यु॒ज्यता॑म् । ब्रह्म॑ । पूर्व॑म् । ब्रह्म॑ । अ॒न्त॒त: । म॒ध्य॒त: । ब्रह्म॑ । स॒र्वत॑: । अ॒ना॒व्या॒धाम् । दे॒व॒ऽपु॒राम् । प्र॒ऽपद्ये॑ । शि॒वा । स्यो॒ना । प॒ति॒ऽलो॒के । वि । रा॒ज॒ ॥१.६४॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मापरंयुज्यतां ब्रह्म पूर्वं ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वतः।अनाव्याधां देवपुरां प्रपद्य शिवा स्योना पतिलोके वि राज ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्म । अपरम् । युज्यताम् । ब्रह्म । पूर्वम् । ब्रह्म । अन्तत: । मध्यत: । ब्रह्म । सर्वत: । अनाव्याधाम् । देवऽपुराम् । प्रऽपद्ये । शिवा । स्योना । पतिऽलोके । वि । राज ॥१.६४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 64
विषय - अनाव्याधा देवपुरा
पदार्थ -
१. नववधू जिस घर में प्रवेश करे वहाँ (अपारम्) = पीछे की ओर (ब्रह्म युज्यताम्) = ब्रह्म का सम्पर्क हो, (पूर्वम्) = सामने की ओर (ब्रह्म) = प्रभु का सम्पर्क हो, (अन्ततः मध्यता) = दोनों सिरों व मध्य में भी (ब्रह्म) = प्रभु का सम्पर्क हो। (सर्वत: ब्रह्म) = सब ओर ब्रह्म का सम्पर्क हो। इस घर में सभी प्रभु का स्मरण करनेवाले हों। २. हे नववधु! तू (अनाव्याधाम्) = व्याधियों से शून्य (देवपुराम्) = देववृत्ति के लोगों की नगरीरूप इस गृह को (प्रपद्य) = प्राप्त होकर यहाँ (पतिलोके) = पतिलोक में (शिव:) = कल्याणकर कर्मों को करनेवाली व (स्योना) = सुखी जीवनवाली (विराज) = विशिष्टरूप से दीप्त हो।
भावार्थ -
नववधू को वह घर प्राप्त हो जहाँ सब प्रभु का स्मरण करनेवाले लोग हों, जिस घर में रोग नहीं, जिस घर में लोग देववृत्ति के हैं। यहाँ यह कर्तव्यपरायण सुखी जीवनवाली होवे।
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