अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 31
सूक्त - आत्मा
देवता - बृहती गर्भा त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यु॒वं भगं॒ संभ॑रतं॒ समृ॑द्धमृ॒तं वद॑न्तावृ॒तोद्ये॑षु। ब्रह्म॑णस्पते॒ पति॑म॒स्यै रो॑चय॒चारु॑ संभ॒लो व॑दतु॒ वाच॑मे॒ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । भग॑म् । सम् । भ॒र॒त॒म् । सम्ऽऋ॑ध्दम् । ऋ॒तम् । वद॑न्तौ । ऋ॒त॒ऽउद्ये॑षु । ब्रह्म॑ण: । प॒ते॒ । पति॑म् । अ॒स्यै । रो॒च॒य॒ । चारु॑ । स॒म्ऽभ॒ल: । व॒द॒तु॒ । वाच॑म् । ए॒ताम् ॥१.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं भगं संभरतं समृद्धमृतं वदन्तावृतोद्येषु। ब्रह्मणस्पते पतिमस्यै रोचयचारु संभलो वदतु वाचमेताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । भगम् । सम् । भरतम् । सम्ऽऋध्दम् । ऋतम् । वदन्तौ । ऋतऽउद्येषु । ब्रह्मण: । पते । पतिम् । अस्यै । रोचय । चारु । सम्ऽभल: । वदतु । वाचम् । एताम् ॥१.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 31
विषय - आशीर्वाद के तीन शब्द
पदार्थ -
१. पति-पत्नी के लिए प्रेरणा प्राप्त कराते हुए उपस्थित विद्वान् कहते हैं कि (युवम्) = तुम दोनों (ऋतोद्येषु) = जहाँ ऋत ही बोला जाता है, जिनमें अनृत [असत्य] का व्यवहार नहीं होता, उन व्यवहारों में (ऋतं वदन्तौ) = सत्य बोलते हुए (समृद्धम्) = सम्यक् बढ़े हुए (भगं संभरतम्) = ऐश्वर्य का संभरण करो। पति-पत्नी घर को ऋत व्यवहारों द्वारा अति समृद्ध बनाएँ। २. वे विद्वान् प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (अस्यै) = इस पत्नी के लिए (पतिं रोचय) = पति को प्रेमास्पद बनाइए. यह पति के लिए प्रीतिवाली हो। पति भी (संभल:) = [भल परिभाषणे] उत्तम भाषणवाला होता हुआ (एतां वाचम्) = इस वाणी को (चारु वदतु) = सुन्दरता से ही बोले। इसकी वाणी में कभी भी कटुता का अंश न हो।
भावार्थ -
पति-पत्नी ऋत व्यवहारों में ऋत [सत्य] ही बोलते हुए घर को समृद्ध करें। पत्नी पति के प्रति प्रीतिवाली हो। पति मधुरवाणी ही बोले।
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