अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
अ॑र्य॒मणं॑यजामहे सुब॒न्धुं प॑ति॒वेद॑नम्। उ॑र्वारु॒कमि॑व॒ बन्ध॑ना॒त्प्रेतो मु॑ञ्चामि॒नामुतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्य॒मण॑म् । य॒जा॒म॒हे॒ । सु॒ऽब॒न्धुम् । प॒ति॒ऽवेद॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कम्ऽइ॑व । बन्ध॑नात् । प्र । इ॒त: । मु॒ञ्चा॒मि॒ । न । अ॒मुत॑: ॥१.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्यमणंयजामहे सुबन्धुं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात्प्रेतो मुञ्चामिनामुतः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्यमणम् । यजामहे । सुऽबन्धुम् । पतिऽवेदनम् । उर्वारुकम्ऽइव । बन्धनात् । प्र । इत: । मुञ्चामि । न । अमुत: ॥१.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
विषय - सुबन्धु-'पतिवेदन-अर्यमा' [Marriges are made in heaven]
पदार्थ -
१. विवाह में उपस्थित लोग विशेषतया वर-वधू के माता-पिता सब मिलकर इस रूप में प्रभु का उपासन करते हैं कि (अर्यमणम्) = सब शत्रुओं का नियमन करनेवाले [अरीन् यच्छति] अथवा सब-कुछ देनेवाले 'अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति', उस प्रभु का (यज्ञामहे) = हम पूजन करते हैं। वह प्रभु ही (सुबन्धुम्) = हमारा उत्तम बन्धु है, वही इन वर-वधू को परस्पर बाँधनेवाला है। प्रभु ही तो (पतिवेदनम्) = एक युवति के योग्य पति प्राप्त कराते हैं। २. (इव) = जैसे (उर्वारुकम्) = खरबूजे को (बन्धनात्) = बन्धन से अलग करते हैं-बेल से तोड़कर अलग करते हैं, उसीप्रकार इस युवति को भी (इत: मुञ्चामि) = इधर से, अर्थात् पितृगृह से मैं मुक्त करता हूँ, (अमुतः न श्वसुर) = गृह से नहीं। ये कन्या बिना किसी प्रकार का कष्ट अनुभव करती हुई अपने पितृगृह से छूटे और पतिगृह को प्राप्त करे।
भावार्थ -
वस्तुत: प्रभुकृपा से ही एक युवति के लिए उत्तम पति की प्राप्ति होती है। युवति पितगृह को प्रसन्नतापूर्वक छोड़कर पतिगृह को प्राप्त करे।
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