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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
    सूक्त - वधूवास संस्पर्श मोचन देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    अ॑श्ली॒लात॒नूर्भ॑वति॒ रुश॑ती पा॒पया॑मु॒या। पति॒र्यद्व॒ध्वो॒ वास॑सः॒स्वमङ्ग॑मभ्यूर्णु॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्ली॒ला। त॒नू: । भ॒व॒ति॒ । रुश॑ती । पा॒पया॑ । अ॒मु॒या । पति॑: । यत् । व॒ध्व᳡: । वास॑स: । स्वम् । अङ्ग॑म् । अ॒भि॒ऽऊ॒र्णु॒ते ॥१.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्लीलातनूर्भवति रुशती पापयामुया। पतिर्यद्वध्वो वाससःस्वमङ्गमभ्यूर्णुते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्लीला। तनू: । भवति । रुशती । पापया । अमुया । पति: । यत् । वध्व: । वासस: । स्वम् । अङ्गम् । अभिऽऊर्णुते ॥१.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 27

    पदार्थ -

    १. एक युवक जिसका कि (तन:) = शरीर (रुशती) = देदीप्यमान होता है, यह (यत्) = यदि (पति:) = पति बनने पर, गृहस्थ में प्रवेश करने पर, (वध्व: वाससः) = वधू के वस्त्रों से (स्वं अङ्गं अभ्यूर्णते) = अपने अङ्गों को आच्छादित करता है, अर्थात् पत्नी के वस्त्रों को ओढ़कर घर पर ही बैठा रहता है, पत्नी के साथ प्रेमालाप में ही परायण रहता है तो उसका शरीर (अमुया पापया) = उस पापवृत्ति से (अश्लीला भवति) = श्रीशून्य हो जाता है। २. वधू के वस्त्रों को पहनकर घर में ही बैठे रहने का भाव प्रेमासक्त होकर अकर्मण्य बन जाने से है। विवाहित हो जाने पर भी एक युवक हृदय-प्रधान बनकर अपने कर्तव्यों को उपेक्षित न कर दे। पत्नी के प्रति आसक्ति उसे कर्तव्यविमुख न बना दे। ऐसा होने पर जीवन भोगप्रधान होकर नष्ट श्रीवाला हो जाता है।

    भावार्थ -

    नवविवाहित युवक को चाहिए कि भोगप्रधान जीवनवाला न बन जाए। हर समय घर पर ही न बैठा रहे।

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