अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
सूक्त - सोम
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यत्त्वा॑ सोमप्र॒पिब॑न्ति॒ तत॒ आ प्या॑यसे॒ पुनः॑। वा॒युः सोम॑स्य रक्षि॒ता समा॑नां॒ मास॒आकृ॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । त्वा॒ । सो॒म॒ । प्र॒ऽपिब॑न्ति । तत॑: । आ । प्या॒य॒से॒ । पुन॑: । वा॒यु: । सोम॑स्य । र॒क्षि॒ता । समा॑नाम् । मास॑: । आऽकृ॑ति: ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्त्वा सोमप्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः। वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मासआकृतिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । त्वा । सोम । प्रऽपिबन्ति । तत: । आ । प्यायसे । पुन: । वायु: । सोमस्य । रक्षिता । समानाम् । मास: । आऽकृति: ॥१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
विषय - आप्यायन व दीर्घजीवन
पदार्थ -
१. हे (सोम) = वीर्यशक्ते! (यत्) = जब ज्ञानी पुरुष (त्वा प्रपिबन्ति) = तुझे प्रकर्षेण शरीर में ही पीने का प्रयत्न करते हैं (ततः) = तब (पुनः आप्यायसे) = फिर से तू शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों की शक्ति को आप्ययित कर देता है। तू शरीर को पुष्ट, मन को निर्मल व बुद्धि को तीन्न बनाता है। २. (वायुः सोमस्य रक्षिता) = वायु सौम का रक्षण करनेवाला है। वायु अर्थात् प्राणों की साधना शरीर में वीर्य की ऊवंगति का कारण बनती है। इस ऊर्ध्वगति से (मास:) = [मस्यते to change form] शरीर की आकृति को परिवर्तित कर देनेवाला, क्षीण अङ्गों को फिर से आप्यायित कर देनेवाला यह सोम (समानं आकृति:) = वर्षों का बनानेवाला होता है, अर्थात् सोमरक्षण से दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है।
भावार्थ -
प्राण-साधना द्वारा सोम की ऊर्ध्वगति होती है। शरीर में रक्षित सोम सब अङ्ग प्रत्यङ्गों की शक्ति को बढ़ानेवाला व दीर्घजीवन प्राप्त करानेवाला होता है।
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