अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
रैभ्या॑सीदनु॒देयी॑ नाराशं॒सी न्योच॑नी।सू॒र्याया॑ भ॒द्रमिद्वासो॒ गाथ॑यति॒परि॑ष्कृता ॥
स्वर सहित पद पाठरैभी॑ । आ॒सी॒त् । अ॒नु॒ऽदेयी॑ । ना॒रा॒शं॒सी । नि॒ऽओच॑नी । सू॒र्याया॑: । भ॒द्रम् । इत् । वास॑: । गाथ॑या । ए॒ति॒ । परि॑ष्कृता ॥१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी।सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयतिपरिष्कृता ॥
स्वर रहित पद पाठरैभी । आसीत् । अनुऽदेयी । नाराशंसी । निऽओचनी । सूर्याया: । भद्रम् । इत् । वास: । गाथया । एति । परिष्कृता ॥१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
विषय - रैभी नाराशंसी, भद्रं गाथा
पदार्थ -
१. विवाह के समय भी-प्रभु-स्तवन करनेवाली ऋचा ही (अनुदेयी) = इसका दहेज (आसीत्) = था। पिता कन्या को ऋचाओं द्वारा प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाली बनाता है। यह स्तुतिवृत्तिवाली बना देना ही सर्वोत्तम दहेज देना है। (नाराशंसी) = नर-समूह के शंसन की वृत्ति, सबकी प्रशंसा करने की वृत्ति और कमियों की ओर ध्यान न देने की वृत्ति ही इसका (न्योचनी) = कुर्ता होता है अथवा वीर पुरुषों के चरितों का शंसन, अर्थात् इनका इतिहास ज्ञान ही इस युवति का समुचित वस्त्र है। २. (भद्रं इत् सूर्यायाः वास:) = इस युवति की भगता ही इसका ओढ़ने का वस्त्र है। (गाथया) = प्रभु गुणगान से (परिष्कृता) = अलंकृत हुई-हुई यह (युवति एति) = पतिगृह की ओर आती है |
भावार्थ -
कन्या को स्तुतिवृत्तिवाला बना देना ही सच्चा दहेज है। सदा दूसरों के गुणों को देखने की वृत्तिवाला होना ही इसका कुर्ता है। यह युवति किसी के भी अवगुणों की ओर ध्यान नहीं देती, अत: निन्दा नहीं करती। इसका वस्त्र इसकी भद्रता है, शिष्टाचार है। यह प्रभु-गुणगान की वृत्ति से परिष्कृत जीवनवाली बनकर पतिगृह को प्राप्त होती है।
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