अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 52
सूक्त - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
ममे॒यम॑स्तु॒पोष्या॒ मह्यं॑ त्वादा॒द्बृह॒स्पतिः॑। मया॒ पत्या॑ प्रजावति॒ सं जी॑व श॒रदः॑श॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठमम॑ । इ॒यम् । अ॒स्तु । पोष्या॑ । मह्य॑म् । त्वा॒ । अ॒दा॒त् । बृ॒ह॒स्पति॑: । मया॑ । पत्या॑ । प्र॒जा॒ऽव॒ति॒ । सम् । जी॒व॒ । श॒रद॑: । श॒तम् ॥१.५२॥
स्वर रहित मन्त्र
ममेयमस्तुपोष्या मह्यं त्वादाद्बृहस्पतिः। मया पत्या प्रजावति सं जीव शरदःशतम् ॥
स्वर रहित पद पाठमम । इयम् । अस्तु । पोष्या । मह्यम् । त्वा । अदात् । बृहस्पति: । मया । पत्या । प्रजाऽवति । सम् । जीव । शरद: । शतम् ॥१.५२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 52
विषय - ममेयमस्तु पोष्या
पदार्थ -
१. (इयम्) = यह पत्नी (मम पोष्या अस्तु) = मेरी पोषणीय हो। मैं घर में पोषण के लिए आवश्यक वस्तुओं की कमी न होने दूं। (मह्यम्) = मेरे लिए (त्वा) = तुझे (बृहस्पति: अदात्) = ब्रह्मणस्पति प्रभु ने प्राप्त कराया है, दिया है। प्रभु की कृपा से ही यह हमारा सम्बन्ध हुआ है। है (प्रजावति) = उत्तम सन्तानों को जन्मदेनेवाली सुभगे! तू (मया पत्या) = मुझ पति के साथ (शरदः शतम्) = शतवर्षपर्यन्त (संजीव) = सम्यक् जीनेवाली हो। हम दोनों मिलकर इस गृहस्थयज्ञ को सम्यक् सम्पन्न करें।
भावार्थ -
गृहपति यह अपना सर्वाधिक आवश्यक कर्तव्य समझे कि घर में पोषण के लिए आवश्यक सामग्री में कमी न हो। पत्नी भी इस सम्बन्ध को प्रभु प्रेरणा से हुआ-हुआ समझती हुई पति के साथ प्रेम से गृहस्थयज्ञ में उत्तम सन्तानोंवाली बने।
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