Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 41
    सूक्त - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    खे रथ॑स्य॒ खेऽन॑सः॒ खे यु॒गस्य॑ शतक्रतो। अ॑पा॒लामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒त्वाकृ॑णोः॒सूर्य॑त्वचम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    खे । रथ॑स्य । खे । अन॑स: । खे । यु॒गस्य॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो । अ॒पा॒लाम् । इ॒न्द्र॒ । त्रि: । पू॒त्वा । अकृ॑णो: । सूर्य॑ऽत्ववचम् ॥१.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    खे रथस्य खेऽनसः खे युगस्य शतक्रतो। अपालामिन्द्र त्रिष्पूत्वाकृणोःसूर्यत्वचम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    खे । रथस्य । खे । अनस: । खे । युगस्य । शतक्रतो इति शतक्रतो । अपालाम् । इन्द्र । त्रि: । पूत्वा । अकृणो: । सूर्यऽत्ववचम् ॥१.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 41

    पदार्थ -

    १. हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले प्रभो! (रथस्य खे) = शरीररूप रथ के छिद्र में (अनसः खे) = [अन प्राणने], प्राणमयकोश के छिद्र में-इन्द्रियों के छिद्र में [प्राणा: वाव इन्द्रियाणि] (युगस्य खे) = आत्मा व इन्द्रियों को परस्पर जोड़नेवाले मन के छिद्र में, हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विद्रावक प्रभो! इस (अपालाम्) = [अप अलम्]-दोषों का सुदूर वारण करने के लिए यत्नशील युवति को (त्रिः पूत्वा) = तीन प्रकार से पवित्र करके-शरीर, इन्द्रियों व मन में पवित्र व निर्दोष बनाकर (सूर्यत्वचम् अकृणो:) = आप सूर्यसम दीप्त त्वचावाला बनाते हैं, इसे नितराम तेजस्वी बनाते हैं। २. शरीर, इन्द्रियों व मन के दोषों का निराकरण होने पर जीवन तेजस्वी व पवित्र बनता ही है। शरीर के दोष रोग हैं, इन्द्रियों के दोष विषयसंग हैं तथा मन का दोष राग-द्वेष परिपूर्णता है। प्रभु अपाला के इन सब दोषों को दूर करते हैं।

    भावार्थ -

    प्रभुकृपा से हमारे राष्ट्र में युवतियाँ 'शरीर, इन्द्रियों व मन' के दोषों से रहित होकर सूर्यसम दीप्त त्वचावाली हों।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top