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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 12
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्याविवाहः छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    शुची॑ ते च॒क्रे या॒त्या व्या॒नो अक्ष॒ आह॑तः । अनो॑ मन॒स्मयं॑ सू॒र्यारो॑हत्प्रय॒ती पति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शुची॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । या॒त्याः । वि॒ऽआ॒नः । अक्षः॑ । आऽह॑तः । अनः॑ । म॒न॒स्मय॑म् । सू॒र्या । आ । अ॒रो॒ह॒त् । प्र॒ऽय॒ती । पति॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहतः । अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुची । ते । चक्रे इति । यात्याः । विऽआनः । अक्षः । आऽहतः । अनः । मनस्मयम् । सूर्या । आ । अरोहत् । प्रऽयती । पतिम् ॥ १०.८५.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 12
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यात्याः) पतिगृह को जाती हुई के (ते) तेरे (शुची चक्रे) मनोरूप रथ के जो चक्र श्रोत्र हैं, वे पवित्र हैं, उनसे शास्त्रवचन को जैसे सुने, वैसे पति के वचनों को सुने (अक्षः-व्यानः-आहतः) उस रथ का अक्षदण्ड शुभ गुणकर्मस्वभाव प्राप्त करानेवाला विचार आस्थित है (मनस्मयम्-अनः) मन रूप रथ है (सूर्या पतिं प्रयती रोहत्) तेजस्विनी वधू पति की ओर जाती हुई उस पर बैठती है ॥१२॥।

    भावार्थ

    तेजस्विनी नव वधू पति के प्रति अपने मन को लगावे, श्रोत्रों से उसके वचन सुने, शुभ गुणकर्मस्वभावपूर्ण विचार किया करे, तो गृहस्थाश्रम सफल हो ॥१२॥

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    विषय

    मनोमय रथ का वर्णन।

    भावार्थ

    हे वधू ! (यात्याः ते) जाती हुई तेरे रथ के (चक्रे) दोनों चक्र (शुची) शुद्ध हों। उस मनोमय रथ में (अक्षः) अक्ष रूप से (व्यानः आहतः) व्यान लगा हो। (पतिम् प्रयती सूर्या) पति की ओर प्रयाण करती हुई सूर्या, नववधू (मनस्मयं अनः) मनोमय रथ को (आरोहत्) चढ़े। वधू का चित्तमय रथ गृहस्थ-धारण रूप है। उसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही उस रथ को धारण करने से रथ में लगे दो अश्वों के तुल्य हैं। वे दोनों ऋचा और साम, ज्ञान और उपासना वा परस्पर की अर्चना, आदरभाव और समान चित्तता से बद्ध हों, इस रथ के चक्र श्रोत्र हों अर्थात् वे दोनों एक दूसरे के वचनों को चित्त देकर सुनें, एक दूसरे के कथन का अवहेलना या तिरस्कार न करें। तब वे अपनी कामनानुसार चर और अचर सभी ऐश्वर्य-सम्पदा को प्राप्त कर सकते हैं चर, पशु भृत्यादि और अचर, भूमि, गृह, स्वर्णादि। उनके कान जो चक्र रूप हैं सदा स्वच्छ रहना चाहिये। प्रायः चुगलखोर नर-नारियां, विवाहितों के कान भर कर ही एक दूसरे के प्रति द्वेष और कलह को बो देते हैं, और फिर गृहस्थ का सब सुख नष्ट हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    'प्राण- अपान- व्यान' की ठीक स्थिति

    पदार्थ

    [१] (पतिं प्रयती) = पतिगृह की ओर जाती हुई (सूर्या मनस्मयं अन:) = सूर्या मन से बने रथ पर, मनोरथ पर (आरोहत्) = आरूढ़ हुई। तो उस समय (यात्याः) = जाती हुई सूर्या के रथ के (ते चक्रे) = वे चक्र (शुची) = वे पवित्र प्राणापान ही थे, और उन प्राणापान रूप चक्रों में (व्यानः) = व्यान (अक्ष:) = अक्ष [ axle ] के रूप में (आहतः) = लगा हुआ था । 'प्राणापानौ पवित्रे' तै० ३।३, ४|४| प्राणापान ही शुचि व पवित्र हैं । ये यदि रथ के पहिये हैं तो कान उन चक्रों का अक्ष है । "भूः ' इति प्राणः, 'भुव:' इति अपान:, 'स्व:' इति व्यानः ' इन ब्राह्मण ग्रन्थों के शब्दों में 'भूः भुवः स्वः ' ही प्राण अपान व व्यान हैं। यही त्रिलोकी है । अध्याय में 'भूः ' शरीर है, 'भुवः' हृदयान्तरिक्ष है, 'स्वः' मस्तिष्करूप द्युलोक है। सूर्या के ये तीनों ही लोक बड़े ठीक हैं। इनको ठीक बना करके वह मनोमय रथ पर आरूढ़ हुई है और पतिगृह की ओर चली है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्या के 'प्राण-अपान-व्यान' ठीक कार्य करनेवाले हैं, अतएव वह पूर्ण स्वस्थ व उल्लासमय मनवाली है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यात्याः-ते शुची चक्रे) पतिगृहं गच्छन्त्यास्तव मनोरथस्य ये चक्रे श्रोत्रे ते पवित्रे स्तः, यतः शास्त्रं श्रोतुं योग्ये तथा पतिवचनं श्रोतुं योग्ये भवेतां श्रुत्वा च मनोरथं चालय (अक्षः-व्यानः-आहतः) तद्रथस्य चक्रयोरक्षः-अक्षदण्डो व्यानः शुभगुणकर्मस्वभावप्रापक-विचारः “व्यानाय व्यानिति सर्वान् शुभकर्मस्वभावान् येन तस्मै” [यजु० १३।२४ दयानन्दः] आस्थितोऽस्ति (मनस्मयम्-अनः) यत् खलु मनोरूपं शकटमस्ति (सूर्या पतिं प्रयती रोहत्) तेजस्विनी वधूः पतिं प्रगच्छन्ती सती शकटं रोहति ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Surya, the new bride, rides the chariot of the mind when she moves to the house of the groom (with her dreams of the future). When she moves, her pure ears are the wheels (on which the chariot moves because the mind moves in response to the stimulants of the senses) and the wind, psychic energy of thought, is the axis of the wheels.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेजस्विनी नववधूने पतीवरच प्रेम करावे. श्रोत्रांनी त्याचे वचन ऐकावे. शुभ गुण कर्म स्वभावपूर्ण विचार करावा. तेव्हा गृहस्थाश्रम सफल होतो. ॥१२॥

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