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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 21
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - नृर्णा विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उदी॒र्ष्वात॒: पति॑वती॒ ह्ये॒३॒॑षा वि॒श्वाव॑सुं॒ नम॑सा गी॒र्भिरी॑ळे । अ॒न्यामि॑च्छ पितृ॒षदं॒ व्य॑क्तां॒ स ते॑ भा॒गो ज॒नुषा॒ तस्य॑ विद्धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ई॒र्ष्व॒ । अतः॑ । पति॑ऽवती । हि । ए॒षा । वि॒श्वऽव॑सुम् । नम॑सा । गीः॒ऽभिः । ई॒ळे॒ । अ॒न्याम् । इ॒च्छ॒ । पि॒तृ॒ऽसद॑म् । विऽअ॑क्ताम् । सः । ते॒ । भा॒गः । ज॒नुषा॑ । तस्य॑ । वि॒द्धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीर्ष्वात: पतिवती ह्ये३षा विश्वावसुं नमसा गीर्भिरीळे । अन्यामिच्छ पितृषदं व्यक्तां स ते भागो जनुषा तस्य विद्धि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ईर्ष्व । अतः । पतिऽवती । हि । एषा । विश्वऽवसुम् । नमसा । गीःऽभिः । ईळे । अन्याम् । इच्छ । पितृऽसदम् । विऽअक्ताम् । सः । ते । भागः । जनुषा । तस्य । विद्धि ॥ १०.८५.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 21
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विश्वावसुम्) मेरे सब मन आदि में बसनेवाले पति की ‘नमसा’ (गीर्भिः) नमस्कार तथा मधुर वाणियों द्वारा (ईडे) मैं वधू प्रशंसा करती हूँ (अतः) इस स्थान से (उत् ईर्ष्व) उठ अपने घर को ले चल मुझे (एषा हि पतिमती) यह मैं पतिवाली तेरे साथ हो गई (पितृषदं व्यक्ताम्) पितृकुल की सभा में घोषित की गई हुई को (अन्याम्-इच्छ) अपने गोत्र से भिन्न मुझे चाह (ते सः-भागः)तेरा भाग वह है (तस्य जनुषा विद्धि) उस पत्नीरूप भाग का दूसरे जन्म-निज जन्मरूप पुत्र हेतु से मुझे स्वीकार कर ॥२१॥

    भावार्थ

    भिन्न गोत्र की कन्या से विवाह करना चाहिए, पति के घर में वधू रहेगी, अपने रूप में पुत्र को उत्पन्न करना है ॥२१॥

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    विषय

    पुरुष को कन्या-ग्रहण करने का आदेश। विश्वावसु गन्धर्व का स्पष्टीकरण।

    भावार्थ

    पति के प्रति (विश्व-वसुं) समस्त विश्व में व्यापक, समस्त विश्व रूप धन के स्वामी, समस्त जगत् के आच्छादक और सब को बसाने वाले प्रभु को हम (नमसा) नमस्कार सहित (गीर्भिः) वेदवाणियों से (ईडे) स्तुति करूं। हे पुरुष ! तू (उद् ईर्ष) उठ, खड़ा हो, उत्साह कर (हि) जिससे (एषा) यह कन्या (पति-वती) पति वाली हो। तू इस (अन्याम्) अपने से भिन्न गोत्र की और (अन्यां) अन्य किसी द्वारा गृहादि में न लेजाई गई, (पितृ-सदम्) पिता माता पर ही आश्रित (व्यक्तां) विशेष रूप से अञ्जन, अभ्यंग आदि से सुसज्जित, विविध आभूषणादि से सजी, प्रकट रूप में तेरे आगे स्थित कन्या को (इच्छ) तू चाह। (ते) तेरा (सः भागः) यही उचित रूप से स्वीकार करने अंश योग्य है। तू (तस्य) उस कन्या रूप अंश को (जनुषा) स्वयं उसमें पुत्र रूप से उत्पन्न होने के निमित्त (विद्धि) प्राप्त कर। ‘विश्वावसु’ यहां कोई विशेष गन्धर्व नहीं है जिसे सायण पतीवती कन्या से पृथक् करके अन्य किसी बालिका कन्या के पास भेजने का संकेत करता है। प्रत्युत या तो ‘विश्वावसु’ परमेश्वर है अथवा प्रवेश योग्य गृहस्थ ही ‘विश्व’ है उसमें बसने वाला २४ वर्ष का ब्रह्मचारी वसु है, उत्तम वेद वाणी को धारण करने से वा विवाह काल में गोदान ग्रहण करने से वा गम्या नारी वा गो अर्थात् भूमिवत् पत्नी को धारण करने से वह पति पुरुष ही ‘विश्वावसु’ है। यह बात अगले मन्त्र में स्पष्ट है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    पति व पिता का कर्त्तव्य-विभाग

    पदार्थ

    [१] जब कन्या विवाहित होकर चली जाती है तो कन्या के पिता के लिये कहते हैं कि अब अतः इस कन्या की ओर से (उत् ईर्ष्या) = बाहर [out = उत्] गतिवाले होइये । अर्थात् इस कन्या के विषय में बहुत न सोचते रहिये । (एषा) = यह (हि) = निश्चय से पतिवती अब प्रशस्त पतिवाली है । वह पति ही इसकी रक्षा आदि के लिये उत्तरदायी है । [२] पिता तो सदा यही निश्चय करें कि (विश्वावसुम्) = उस सबके बसानेवाले प्रभु को (नमसा) = नम्रतापूर्वक (गीर्भिः) = स्तुति-वाणियों से (ईडे) = स्तुति करता हूँ । प्रभु को सबका बसानेवाला समझें, प्रभु इस कन्या के निवास को भी उत्तम बनाएँगे। [३] पिता के लिये कहते हैं कि अब आप (अन्याम्) = दूसरी कन्या के (इच्छ) = रक्षणादि की इच्छा करिये। जो कन्या (पितृषदम्) = पितृकुल में ही विराजमान है, पर (व्यक्ताम्) = प्रादुर्भूत यौवन के चिह्नोंवाली है। [४] (जनुषा) = आपके यहाँ जन्म लेने के कारण (स) = वह (ते भाग:) = आपका कर्त्तव्य भाग है । विवाहित कन्या का रक्षण तो पति करेगा। इस अविवाहित का रक्षण आपने करना है । तस्य विद्धि उस अपने कर्त्तव्य भाग को समझिये ।

    भावार्थ

    भावार्थ - विवाहित कन्या का हर समय ध्यान न करके पिता को उसकी दूसरी बहिन का ही ध्यान करना चाहिए। विवाहित कन्या के लिये प्रभु से प्रार्थना करनी ही उचित है कि वे उसके जीवन को सुन्दर बनाये ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विश्वावसुं नमसा गीर्भिः-ईडे) अहं वधूः विश्वस्मिन् मनसि वसितारं त्वां पतिं सत्कारेण प्रशस्तवाग्भिश्च स्तौमि-प्रशंसामि (अतः) अस्मात् स्थानात् (उत् ईर्ष्व) उद्गच्छ स्वगृहे नय माम् (एषा हि पतिवती) एषां ह्यहं पतिवती जाता त्वया सह (अन्याम्-इच्छ) स्वगोत्रभिन्नां मामिच्छ प्रीणीहि (पितृषदं व्यक्ताम्) पितृकुलसभायां व्यक्तां कृत्वा तुभ्यं दत्तास्मि (ते सः-भागः) तव भागः सः (तस्य जनुषा विद्धि) तस्य पत्नीरूपस्य भागस्य द्वितीयेन जन्मना “जनुषा द्वितीयेन जन्मना” [ऋ० ५।१९।१४ दयानन्दः] निजद्वितीय-जन्मरूपपुत्रेण हेतुना जानीहि मां स्वीकुरु ॥२१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Rise from here. This girl is now married as wife to a husband. Thanks and salutations I offer to the master of the world’s wealth with homage and words of reverence and adoration. Love this girl, your other self, born, bred and raised to fullness in the parental home. She is now a part of your life. Know her, accept and take her as a complement of your self from the very birth by nature, culture and future growth of your life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भिन्न गोत्राच्या कन्येबरोबर विवाह केला पाहिजे. पतीच्या घरी वधू राहील. आपल्या रूपात पुत्राला उत्पन्न करावयाचे असते. ॥२१॥

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