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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 31
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ये व॒ध्व॑श्च॒न्द्रं व॑ह॒तुं यक्ष्मा॒ यन्ति॒ जना॒दनु॑ । पुन॒स्तान्य॒ज्ञिया॑ दे॒वा नय॑न्तु॒ यत॒ आग॑ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । व॒ध्वः॑ । च॒न्द्रम् । व॒ह॒तुम् । यक्ष्माः॑ । यन्ति॑ । जना॑त् । अनु॑ । पुन॒रिति॑ । तान् । य॒ज्ञियाः॑ । दे॒वाः । नय॑न्तु । यतः॑ । आऽग॑ताः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये वध्वश्चन्द्रं वहतुं यक्ष्मा यन्ति जनादनु । पुनस्तान्यज्ञिया देवा नयन्तु यत आगताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । वध्वः । चन्द्रम् । वहतुम् । यक्ष्माः । यन्ति । जनात् । अनु । पुनरिति । तान् । यज्ञियाः । देवाः । नयन्तु । यतः । आऽगताः ॥ १०.८५.३१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 31
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये यक्ष्माः) जो रोग (वध्वः) वधू के (चन्द्रं वहतुम्) आह्लादक वोढा-पति (जनात्-अनु यन्ति) जनन-उत्पन्न करनेवाले वंश से प्राप्त होते हैं (यज्ञियाः-देवाः) यज्ञसम्पादक विद्वान्-यज्ञ से चिकित्सा करनेवाले (पुनः-तान् नयन्तु) फिर उन रोगों का शमन करें (यतः-आगताः) जिस दोष से आये हैं, उस दोष को यज्ञ से नष्ट करें ॥३१॥

    भावार्थ

    वधू के वोढा पति को जो रोग वंश से प्राप्त हो जाते हैं, उनको यज्ञविधि से चिकित्सा करनेवाले शान्त करें और उसके बीजरूप दोष का भी शमन करें ॥३१॥

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    विषय

    पुरुषादि से आने वाले, स्त्री शरीर वा गर्भाशय द्वारा आने वाले परस्परिक रोगों से बचने का का उपदेश।

    भावार्थ

    (ये यक्ष्माः) जो रोग या व्याधियां (वध्वः) वधू के (चन्द्रम्) आल्हादकारी (वहतुम्) शरीर को (जनात् अनु यन्ति) उत्पादक माता पिता से क्रमशः प्राप्त होती हैं (यज्ञिया देवाः) पूज्य विद्वान् पुरुष (तान्) रोगों के उन कारणों को (पुनः नयन्तु) बार २ दूर करें (यतः आगताः) जिनसे वे व्याधियां पुनः २ आजाती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    नीरोगता

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में उल्लेख था कि पति पत्नी के प्रति आसक्त होकर भोग-प्रधान जीवनवाला न बन जाये। भोग-प्रधान जीवन से रोगों के आ जाने की आशंका है। सो कहते हैं कि (वध्वः) = इस वधू के (चन्द्रं वहतुम्) = इस आह्लादमय वैवाहिक जीवन में ये (यक्ष्माः) = जो रोग (जनात्) = इस पति से (अनुयन्ति) = अनुक्रमेण आ जाते हैं, (यज्ञियाः देवाः) = आदर के योग्य, घरों में समय-समय पर आनेवाले अतिथि (तान्) = उन बातों को (पुनः) = फिर (नयन्तु) = दूर ले जायें (यतः आगताः) = जिन कारणों से ये रोग आये थे। [२] विद्वान् अतिथि आकर उन व्यवहारों को ज्ञानोपदेश से दूर करने का प्रयत्न करें, जिन कारणों से कि रोग आ जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ-विद्वान् अतिथि ही यज्ञिय देव हैं। ये समय-समय पर घरों में आकर ज्ञानोपदेश से हमारे जीवनों को नीरोग बनाते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये यक्ष्माः) ये रोगाः (वध्वः-चन्द्रं वहतुम्) कन्याया आह्लादकारकं वोढारं वरं पतिम् “वहतुं वोढारम्” [ऋ० ४।५८।९ दयानन्दः] (जनात्-अनु यन्ति) जननकुलाद्वंशादनुप्राप्नुवन्ति (यज्ञियाः-देवाः) यज्ञसम्पादिनो विद्वांसः “यज्ञियाः यज्ञसम्पादिनः” [निरु० ९।२७] यज्ञेन चिकित्सां कुर्वाणाः (पुनः-तान् नयन्तु) तान् रोगान् शमयन्तु (यतः-आगताः) यतो हि दोषादागतास्तं दोषं यज्ञेन नाशयन्तु ॥३१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those consumptive ailments which afflict the health and handsomeness of the husband or the beauty and fertility of the wife from birth, let the sages and brilliant specialists of yajna treat and cure upto the source whence, otherwise, they may come and afflict again.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वधूच्या पतीला जे रोग वंशरूपाने प्राप्त होतात त्यांना यज्ञविधीने चिकित्सा करणाऱ्यांनी शांत (ठीक) करावे व त्यांच्या बीजरूप दोषांचे शमन करावे. ॥३१॥

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