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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 45
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्या छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒मां त्वमि॑न्द्र मीढ्वः सुपु॒त्रां सु॒भगां॑ कृणु । दशा॑स्यां पु॒त्राना धे॑हि॒ पति॑मेकाद॒शं कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । मी॒ढ्वः॒ । सु॒ऽपु॒त्राम् । सु॒ऽभगा॑म् । कृ॒णु॒ । दश॑ । अ॒स्या॒म् । पु॒त्रान् । आ । धे॒हि॒ । पति॑म् । ए॒का॒द॒शम् । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु । दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । त्वम् । इन्द्र । मीढ्वः । सुऽपुत्राम् । सुऽभगाम् । कृणु । दश । अस्याम् । पुत्रान् । आ । धेहि । पतिम् । एकादशम् । कृधि ॥ १०.८५.४५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 45
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मीढ्वः-इन्द्र त्वम्) हे वीर्यसेचक ! ऐश्वर्यवन् ! तू (इमां सुपुत्रां सुभगां कृणु) इस वधू को शोभन पुत्रोंवाली अच्छी सोभाग्यवती कर (अस्यां दश पुत्रान्-आ धेहि) इस में दस पुत्रों का आधान कर (एकादशं पतिं कृधि) दश के ऊपर अपने को-पति को समझ ॥४५॥

    भावार्थ

    पति को चाहिए कि पत्नी को सौभाग्यपूर्ण प्रशस्त पुत्रोंवाली बनावे, दस पुत्रों को उत्पन्न करे, अधिक नहीं, अथवा दस बार गर्भाधान करे, अपने को ग्यारहवाँ पालक समझे ॥४५॥

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    विषय

    वेद की १० पुत्रोत्पत्ति करने की आज्ञा।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् स्वामिन् ! हे (मीढ्वः) वीर्यसेचन करने हारे ! (त्वम्) तू (इमां) इसको (सु-भगां) उत्तम ऐश्वर्य से युक्त (सु-पुत्रां) उत्तम पुत्रों की माता (कृणु) कर। (दश पुत्रान् आ धेहि) दस पुत्रों का आधान कर। और तू (पतिम्) पति रूप अपने आप को (एकादशं कृधि) पुत्रों के बीच ग्यारहवां बना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    वर के प्रति माता-पिता का कथन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = इन्द्रियों को वश में करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष ! (मीढ्वः) = हे सब सुखों के सेचन करनेवाले पुरुष ! (त्वम्) = तू (इमाम्) = इसको (सुपुत्राम्) = उत्तम पुत्रोंवाली और उनके द्वारा (सुभगम्) = उत्तम भाग्यवाली (कृणु) = कर । सामान्यतः अपुत्रा को अभाग्यवाली ही कहा जाता है । पत्नी का सौभाग्य माता बनने में ही है । सन्तान सफलता का प्रतीक है, सन्तान का अभाव असफलता का । [२] (अस्याम्) = इस पत्नी में तू (दश) = दस (पुत्रान्) = पुत्रों को (आधेहि) = स्थापित कर और (पतिम्) = पति को अर्थात् अपने को (एकादशं कृधि) = ग्यारहवाँ कर । दस पुत्र, ग्यारहवाँ पति एवं वैदिक मर्यादा में अधिक से अधिक दस सन्तानों का विधान है।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति को इन्द्रजितेन्द्रिय होना चाहिए। वह पत्नी पर सुखों का वर्षण करता हुआ उसे सुपुत्रा - सुभगा बनाए ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मीढ्वः-इन्द्र त्वम्) हे वीर्यसेचक ! ऐश्वर्यवन् पते ! त्वम् (इमां सुपुत्रां सुभगां कृणु) एतां वधूं शोभनपुत्रयुक्तां शोभनभाग्यवतीं कुरु (अस्यां दश पुत्रान्-आ धेहि) अस्यां वध्वां दशसङ्ख्यापर्यन्तं पुत्रान्-आधत्स्व (एकादशं पतिं कृधि) दशोपरि स्वात्मानं पतिं जानीहि ॥४५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lord of glory and fertility, Indra, bountiful ruler of the world and the home, bless this bride for noble progeny, honour and glory. Give her ten children, and let the husband be the eleventh, as guardian over all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पतीने पत्नीला सौभाग्यपूर्ण प्रशस्त पुत्रयुक्त बनवावे. दहा पुत्रांना उत्पन्न करावे, अधिक नाही. दहा वेळा गर्भाधान करावे. आपल्याला अकरावा पालक समजावे. ॥४५॥

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