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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 29
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - वधूवासः संस्पर्शनिन्दा छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    परा॑ देहि शामु॒ल्यं॑ ब्र॒ह्मभ्यो॒ वि भ॑जा॒ वसु॑ । कृ॒त्यैषा प॒द्वती॑ भू॒त्व्या जा॒या वि॑शते॒ पति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । दे॒हि॒ । शा॒मु॒ल्य॑म् । ब्र॒ह्मऽभ्यः॑ । वि । भ॒ज॒ । वसु॑ । कृ॒त्या । ए॒षा । प॒त्ऽवती॑ । भू॒त्वी । आ । जा॒या । वि॒श॒ते॒ । पति॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा देहि शामुल्यं ब्रह्मभ्यो वि भजा वसु । कृत्यैषा पद्वती भूत्व्या जाया विशते पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा । देहि । शामुल्यम् । ब्रह्मऽभ्यः । वि । भज । वसु । कृत्या । एषा । पत्ऽवती । भूत्वी । आ । जाया । विशते । पतिम् ॥ १०.८५.२९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 29
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शामुल्यम्) शमल का कर्म-अशुद्ध कर्म (परा देहि) रजोवस्त्र परे फेंक (ब्रह्मभ्यः-वसु विभज) विद्वानों के लिये धन विशेषरूप से श्रद्धा से दे, या विद्वानों से ज्ञानधन विशेषरूप से सेवन कर, शरीर मन से पवित्र हो (एषा कृत्या) इस क्रिया से (पद्वती) फलवती-गर्भवती (जाया भूत्वी) पुत्रजननयोग्य होकर (पतिम्-आ विशते) पति को भलीभाँति प्राप्त करती है ॥२९॥

    भावार्थ

    स्त्री रजस्वला होने पर अशुद्धि दूर करे, अशुद्ध वस्त्र त्याग दे, विद्वानों को धन दान करे, उनसे ज्ञान ग्रहण कर एवं शरीर और मन को पवित्र कर गर्भधारण-पुत्रजनन करने योग्य होकर पति का समागम करे ॥२९॥

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    विषय

    विवाह बन्धन में बन्धने का ठीक समय और विवाह काल में करने योग्य कार्यों का निर्देश। स्त्री-सहवास के पूर्व स्त्री के शरीर शोधन की अति आवश्यकता। अविवेक से हानियें। दूषित स्त्री-देह से भयंकर रोगादि को संभावना।

    भावार्थ

    (शामुल्यं) शरीरस्थ मल के अंश को (परा देहि) दूर कर। (ब्रह्मभ्यः) विद्वान् ब्राह्मणों को (वसु वि भज) धन प्रदान कर। जब कि (एषा) यह कन्या (पद्-वती) शुभ चरणों वाली वा सप्तपदी से युक्त, (कृत्या) अंगीकार करने योग्य (जाया) सन्तान उत्पन्न करने वाली पत्नी (भूत्वी) होकर (पतिम्) पति को (आ विशते) प्राप्त होती है, उसको सर्वात्मना अंगीकार करती है। अथवा—(शामुल्यं) शान्ति को नष्ट करने वाले हार्दिक मल, दुर्भाव और रोगादि को (परा देहि) दूर कर। (ब्रह्मभ्यः) विद्वानों को (वसु वि भज) धन प्रदान कर। और उनसे प्राप्त उनका उत्तम विविध ज्ञान रूप धन (वि भज) विशेष रूप से सेवन कर क्योंकि (एषा) यह स्त्री (पद्-वती) सप्तपदों वाली, मित्र तुल्य होकर (जाया) पत्नी रूप से (कृत्या) हिंसाकारिणी, होकर (पतिम् आ विशते) पति में प्रवेश कर जाती है और विविध रोगों को उत्पन्न कर सकती है। इसलिये विवाहित पुरुष को चाहिये कि स्त्री से मैथुन करने के पूर्व स्त्री के देह में से समस्त प्रकार के विषैले रोगादि कारणों को दूर करे। नहीं तो वह पत्नी ही पति के नाना कष्टों और रोगों का कारण हो सकती है। विशेष कर जब पत्नी ऋतु-धर्म से रजस्वला होती है तब भी रोगकारी अंश रजोरुधिर में होते हैं उस समय पति स्त्री के पास सर्वथा न जावे, उसका उतने दिन परित्याग करे, नहीं तो वह पति को भयंकर रोगों का शिकार बना देती है। पुनः गर्भ स्वच्छ हो जाने पर वह मैथुन-धर्म से पति के पास आवे। विवाहान्तर विधि में कन्या के निमित्त अंग-होम के मन्त्रों में भी इस का संकेत है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    गृहपत्नी के चार गुण

    पदार्थ

    [१] नव विवाहित वधू से कहते हैं कि तू (शामुल्यम्) = [शम, उल्दाहे] ऐसी बातों को जो शान्ति का दहन कर देती हैं (परादेहि) = दूर कर दे। कभी ऐसा वाक्य न बोल जो घर में अशान्ति का कारण बने। [२] तू 'व्यये चामुक्तहस्तया' इस मनु वाक्य के अनुसार व्यय में अमुक्त हस्ता होती हुई भी (ब्रह्मभ्यः) = ज्ञानी ब्राह्मणों के लिये (वसु विभजा) = धन को देनेवाली हो, अर्थात् घर में दान की वृत्ति को नष्ट न होने देना। [३] (एषा) = ऐसी गृहपत्नी ही (कृत्या) = बड़ी क्रियाशील होती हुई (पद्वती) = उत्कृष्ट पाँवोंवाली होती हुई, अर्थात् लेटे न रहनेवाली (भूत्वी) = होकर (जाया) = उत्कृष्ट सन्तान को जन्म देनेवाली (पतिं आविशते) = पति के हृदय में प्रवेश करती है, अर्थात् पति के हृदय में इसके लिये प्रेम उत्पन्न होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पत्नी का पहला गुण यह है कि शान्तिभंग का कोई कार्य न करें। दूसरा यह कि दानवृत्तिवाली हो । तीसरे क्रियाशील हो । चौथे उत्कृष्ट सन्तान को जन्म देनेवाली बने ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शामुल्यं परा देहि) शमलस्य कर्म शामुल्यम् “अकारस्य छान्दस उकारः” अशुद्धकर्म पराक्षिप-रजोवस्त्रं परे त्यज (ब्रह्मभ्यः वसु विभज) विद्वद्भ्यो धनं विशिष्टतया-श्रद्धया देहि यद्वा विद्वत्सकाशात् खलु ज्ञानधनं विशिष्टतया सेवस्व-गृहाण, शरीरेण मनसा च पवित्रा भव (एषा कृत्या पद्वती) एतया कृत्यया-क्रियया ‘तृतीयार्थे प्रथमा छान्दसी’ फलवती-गर्भवती (जाया भूत्वी) पुत्रजननयोग्या भूत्वा (पतिम्-आ विशते) पतिं समन्तात् प्राप्नोति पत्युर्मनसि प्रविष्टा भवति ॥२९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Cast away the sense of sin and impurity, share wealth and knowledge with and from the holy and wise, and when the bride has taken the seven steps to conjugal duty, she joins the husband heart and soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्त्री रजस्वला झाल्यानंतर अशुद्धी दूर करावी. अशुद्ध वस्त्रांचा त्याग करावा. विद्वानांना धन द्यावे. त्यांच्याकडून ज्ञान ग्रहण करावे व शरीर आणि मन पवित्र करून गर्भधारण - पुत्रजनन करण्यायोग्य बनून पतीशी समागम करावा. ॥२९॥

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