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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 16
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्याविवाहः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    द्वे ते॑ च॒क्रे सू॑र्ये ब्र॒ह्माण॑ ऋतु॒था वि॑दुः । अथैकं॑ च॒क्रं यद्गुहा॒ तद॑द्धा॒तय॒ इद्वि॑दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वे इति॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । सू॒र्ये॒ । ब्र॒ह्माणः॑ । ऋ॒तु॒ऽथा । वि॒दुः॒ । अथ॑ । एक॑म् । च॒क्रम् । यत् । गुहा॑ । तत् । अ॒द्धा॒तयः॑ । इत् । वि॒दुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः । अथैकं चक्रं यद्गुहा तदद्धातय इद्विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वे इति । ते । चक्रे इति । सूर्ये । ब्रह्माणः । ऋतुऽथा । विदुः । अथ । एकम् । चक्रम् । यत् । गुहा । तत् । अद्धातयः । इत् । विदुः ॥ १०.८५.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 16
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सूर्ये) हे तेजस्वी वधू ! (ते द्वे-चक्रे) तेरे दो चक्ररूप श्रोत्रों को (ब्रह्माणः) विद्वान् (ऋतुथा) समय-समय पर यथावसर (विदुः) गृहस्थजीवन में श्रवण करने के लिये हैं। ये आमन्त्रित किये हुए विद्वान् जानते हैं कि तू श्रवणप्रिया है (अथ) और (एकं चक्रम्) एक चक्र, जो हृदय में मनोरूप है (तत्) उसको तो (अद्धातयः-इत्-विदुः) साक्षाद् ध्यानी मेधावी ही जानते हैं कि तू भोगमात्र में लिप्त नहीं है, परमात्मा का भी ध्यान करती है ॥१६॥

    भावार्थ

    गृहस्थ के अन्दर आते ही वधू को भोग में लिप्त नहीं होना चहिए, किन्तु समय-समय पर विद्वानों से उपदेश सुनते रहना चाहिए और हार्दिक भावना से परमात्मा का चिन्तन ध्यान भी करना चाहिए ॥१६॥

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    विषय

    तीनों चक्रों का स्पष्टीकरण।

    भावार्थ

    हे (सूर्ये) वधू ! (ते) तेरे (चक्र) दोनों चक्रों को (ब्रह्माणः) वेद के विद्वान् उपदेष्टा पुरुष (ऋतुथा) समय २ पर यथावसर (विदुः) जानें। (अथ) और (एकं चक्रम्) एक चक्र (यत् गुहा) जो भीतर अन्तःकरण में है (तत्) उसको (अद्-धातयः) विद्वान् बुद्धिमान्, पुरुष (इत्) ही (विदुः) प्राप्त करते हैं। उसकी गति को वही जानते हैं। विवाह योग्य कन्या के रथ का वर्णन पूर्व मन्त्र में आ चुका है जिसके दो चक्र दो कान बतलाये जा चुके हैं। ‘श्रोत्रं ते चक्रे आस्ताम्’ अर्थात् उस रथ के दोनों कान दो चक्र के समान हैं। तब तीसरा चक्र भीतर अन्तःकरण मन ही है। कन्या विवाह के अवसर पर जिस मार्ग पर पैर रखती है वह या तो कानों से पति के गुण-श्रवण करके रखती है वा चित्त से भावी, सुख-दुःख का विचार करके रखती है। कानों में उत्तम यथार्थ वचनों को सुनाना वेदज्ञ विद्वानों का कार्य है और चित्त का परिज्ञान भी चतुर विद्वान् पुरुष ही कर सकते हैं। वरण के अवसर पर उसका मनोमय रथ इन्हीं तीन चक्रों पर गति करता है।‘अद्धातयः’ इति मेधाविनाम।

    टिप्पणी

    अथर्ववेद में १४, १५ मन्त्रों के उत्तराधों में परस्पर विपर्यास है। यदश्विना॰। ‘क्वैकं चक्कं०’॥ १४॥ ‘यदयातं०’। विश्वे देवा०॥ १५॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    प्रथम चक्र व पिछले दो चक्र

    पदार्थ

    [१] हे सूर्ये! (ते) = तेरे विषय में द्वेचक्रे लगनेवाले दो चक्रों [चक्करों] को तो (ब्रह्माण:) = सर्वज्ञानी पुरुष (ऋतुथा) = उस-उस समय के अनुसार (विदः) = जानते ही हैं। दहेज [बहुत] के लेने के लिये आनेवाला चक्र और विवाह के लिये आनेवाला चक्र तो सबको पता लगता ही है । [२] (अथ) = परन्तु (एकं चक्रम्) = पहला चक्र, जब कि वरपक्षवाले पूछताछ के लिये अपने किसी मित्र के यहाँ आकर ठहरे, (यद् गुहा) = जो चक्र संवृत-सा है [गुह संवरणे] (तद्) = उस चक्र को तो (अद्धातयः) = उस चक्र के ज्ञाता (इत्) = ही, अर्थात् उस चक्र में हिस्सा लेनेवाले ही (विदुः) = जानते हैं। उस समय वर के माता-पिता व उनके वे मित्र, जिनके कि यहाँ आकर प्रथम चक्र में वे ठहरे, वे ही इस चक्र के विषय में जानते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - विवाह प्रसंग में सर्वप्रथम जानकारी के लिये लगाया गया चक्र गुप्त ही होता है । दहेज व विवाह के लिये लगनेवाले चक्र तो सब कोई जानते ही हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सूर्ये) हे तेजस्विनि वधू ! (ते द्वे चक्रे) तव द्वे चक्रे श्रोत्ररूपे (ब्रह्माणः-ऋतुथा विदुः) विद्वांसः समये समये यथावसरं गार्हस्थजीवने श्रवणार्थमामन्त्रिताः-जानन्ति यत्त्वं श्रवणप्रियाऽसि (अथ-एकं चक्रं यत्-गुहा) पुनश्च यदेकं चक्रं मनोरूपं हृदयगुहायामस्ति (तत्) तत्तु (अद्धातयः-इत्-विदुः) साक्षाद्ध्यानिनो मेधाविन एव जानन्ति “अद्धातयो मेधाविनः” [निघ० ३।।५] यत्त्वं भोगमात्रे लिप्ता तु न ? तेन मनोरूपेण चक्रेण परमात्मानमपि घ्यायसि किम् ॥१६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Surya, bride of the new home, the sages of knowledge know the two wheels of your life’s chariot according to the seasons, i.e., your words and actions according to your moods and circumstances. The third, thought, reflection and intentions, is hidden in the depths of the mind which only exceptional master minds know. And that one is a mystery.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थाश्रमात येताच वधूने भोगात लिप्त होता कामा नये; परंतु वेळोवेळी विद्वानांकडून उपदेश ऐकत राहावे व हार्दिक भावनेने परमेश्वराचे चिंतन ध्यानही केले पाहिजे. ॥१६॥

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