ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 37
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - सूर्या
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तां पू॑षञ्छि॒वत॑मा॒मेर॑यस्व॒ यस्यां॒ बीजं॑ मनु॒ष्या॒३॒॑ वप॑न्ति । या न॑ ऊ॒रू उ॑श॒ती वि॒श्रया॑ते॒ यस्या॑मु॒शन्त॑: प्र॒हरा॑म॒ शेप॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठताम् । पू॒ष॒न् । शि॒वऽत॑माम् । आ । ई॒र॒य॒स्व॒ । यस्या॑म् । बीज॑म् । म॒नु॒ष्याः॑ । वप॑न्ति । या । नः॒ । ऊ॒रू इति॑ । उ॒श॒ती । वि॒ऽश्रया॑ते । यस्या॑म् । उ॒शन्तः॑ । प्र॒ऽहरा॑म । शेप॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या३ वपन्ति । या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्त: प्रहराम शेपम् ॥
स्वर रहित पद पाठताम् । पूषन् । शिवऽतमाम् । आ । ईरयस्व । यस्याम् । बीजम् । मनुष्याः । वपन्ति । या । नः । ऊरू इति । उशती । विऽश्रयाते । यस्याम् । उशन्तः । प्रऽहराम । शेपम् ॥ १०.८५.३७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 37
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पूषन्) हे पोषणकर्ता ! परमात्मन् ! (तां शिवतमाम्) उस कल्याणकारी वधू को (ईरयस्व) तू प्रेरित करता है-प्रदान करता है (यस्यां मनुष्याः) जिसमें पुरुष (बीजं वपन्ति) सन्तान के बीज-वीर्य को डालते हैं (या उशती) जो कामना करती हुई (नः ऊरू विश्रयाते) हमारे लिये दोनों जङ्घाओं को शिथिल करती है-खोलती है (यस्याम्-उशन्तः) जिसमें हम कामना करते हुए (शेपं प्रहरामः) प्रजननसाधन-पुरुषेन्द्रिय को प्रक्षिप्त करते हैं ॥३७॥
भावार्थ
विवाह के अनन्तर घर पहुँचकर गर्भाधान के लिये वधू को कामना करनी चाहिये, जिसके अन्दर पुत्र की कामना करते हुए पुरुष सन्तानबीज को प्रक्षिप्त करे और वधू अपने गुप्ताङ्गों को खोल दे ॥३७॥
विषय
नर के लिये बीजवपनार्थ भूमि स्त्री, उसका कमनीय कल्याणतम रूप परस्पर कर्षणा।
भावार्थ
हे (पूषन्) सबको पोषण करने हारे, सबको वंश, प्रजा आदि से बढ़ाने हारे ! (यस्यां) जिस भूमि रूप स्त्री में (मनुष्याः) मननशील विद्वान् जन (बीजं वपन्ति) बीज का वपन करते हैं (या) जो (नः) हम पुरुषों की (उशती) कामना करती हुई (ऊरू) दोनों जांघों का (विश्रयाते) आश्रय लेती और हम पुरुष लोग (यस्याम्) जिसमें (शेपम्) प्रजनन अंग को (प्रहराम) प्रवेश, करावें। (शिव-तमा) उस अतिकल्याण रूप गुणों वाली (तां) उस स्त्री को (आ ईरयस्व) तू प्रेरित कर। इन शब्दों में वेद ने पति, पत्नी के गृहस्थ के प्रजोत्पादन कार्य का स्पष्ट वर्णन कर दिया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
'उत्तम सन्तान की कामनावाले' पति-पत्नी
पदार्थ
[१] हे (पूषन्) = अपनी शक्तियों का उचित पोषण करनेवाले तथा परिवार का समुचित पोषण करनेवाले युवन् ! तू (तां शिवतमाम्) = उस अत्यन्त मंगलमय स्वभाववाली पत्नी को (एरयस्व) = प्रेरित करनेवाला हो । पति में उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये कामना हो और पत्नी में उस भावना की कुछ कमी हो तो सन्तान कभी सुन्दर व स्वस्थ नहीं उत्पन्न होते। इसलिए पति को चाहिए कि पत्नी को भी प्रेरणा दे और पत्नी में भी उस भावना के उदय होने पर ही पति-पत्नी सन्तान प्राप्ति के लिए यत्नशील हों । उस पत्नी को तू प्रेरणा देनेवाला हो (यस्याम्) = जिसमें (मनुष्याः) = विचारशील (पति बीजम्) = शक्ति को (वपन्ति) = स्थापित करते हैं । यह पत्नी में शक्ति का स्थापन भूमि में बीज को बोने के समान है । [२] पत्नी वही ठीक है (या) = जो (उशती) = उत्तम सन्तान की कामनावाली होती हुई (नः) = हमारे लिये (उरु विश्रयाते) = उरुओं को खोलनेवाली होती है। भोग की वृत्ति से इन क्रियाओं के होने पर 'धर्मपत्नीत्व' नष्ट हो जाता है। (यस्याम्) = जिसमें हम भी (उशन्तः) = उत्तम सन्तान की कामनावाले होते हुए ही (शेपं प्रहराम) = जननेन्द्रिय को प्राप्त कराते हैं। सन्तान की कामना से यह बीजवपन 'वीर्य-दान' कहलाता है। भोग के होने पर यही 'वीर्य विनाश' हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- पति 'पूषा' हो, पत्नी 'शिवतमा'। दोनों उत्तम सन्तान की कामनावाले होकर ही परस्पर सम्बद्ध हों। यह सम्बन्ध शक्तिक्षय का कारण न बनेगा।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पूषन्) हे पोषणकर्त्तः ! परमात्मन् ! (तां शिवतमाम्-ईरयस्व) तां कल्याणकरीं वधूं प्रेरयसि-प्रयच्छसि (यस्यां मनुष्याः-बीजम्-वपन्ति) यस्यां हि पुरुषाः सन्तानबीजं क्षिपन्ति (या-उशती नः-ऊरू विश्रयाते) या कामयमाना सती खल्वस्मभ्यं जङ्घे उभे शिथिलयति विसारयति (यस्याम्-उशन्तः शेपं प्रहरामः) यस्यां वयं कामयमानाः प्रजननसाधनं पुरुषेन्द्रियं प्रक्षिपामः ॥३७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Pushan, O lord of creativity and growth, inspire her, the most auspicious wife, in whom men sow the seed of life, who, moved with love and desire for progeny, surrenders herself with body and mind and men too with love and passion enter into the conjugal rite of consummation.
मराठी (1)
भावार्थ
विवाहानंतर घरी पोचल्यावर गर्भाधानासाठी वधूने कामना करावी. पुत्राची कामना करत पुरुषाने संतान बीज प्रक्षिप्त करावे व वधूने आपल्या गुप्तांगाला शिथिल करावे. ॥३७॥
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