ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 4
आ॒च्छद्वि॑धानैर्गुपि॒तो बार्ह॑तैः सोम रक्षि॒तः । ग्राव्णा॒मिच्छृ॒ण्वन्ति॑ष्ठसि॒ न ते॑ अश्नाति॒ पार्थि॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒च्छत्ऽवि॑धानैः । गु॒पि॒तः । बार्ह॑तैः । सो॒म॒ । र॒क्षि॒तः । ग्राव्णा॑म् । इत् । शृ॒ण्वन् । ति॒ष्ठ॒सि॒ । न । ते॒ । अ॒श्ना॒ति॒ । पार्थि॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आच्छद्विधानैर्गुपितो बार्हतैः सोम रक्षितः । ग्राव्णामिच्छृण्वन्तिष्ठसि न ते अश्नाति पार्थिवः ॥
स्वर रहित पद पाठआच्छत्ऽविधानैः । गुपितः । बार्हतैः । सोम । रक्षितः । ग्राव्णाम् । इत् । शृण्वन् । तिष्ठसि । न । ते । अश्नाति । पार्थिवः ॥ १०.८५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आच्छद्विधानैः-गुपितः) रक्षण करनेवाले विधानों-संयमाचरणों द्वारा रक्षित तथा (बार्हतैः-रक्षितः) बृहती-वेदवाणी से सम्पन्न आचार्य आदि महानुभावों द्वारा संरक्षित पालित (सोम) हे वीर्य ! तथा वीर्यवान् ब्रह्मचारी (ग्राव्णां शृण्वन्) विद्वानों के उपदेश को सुनता हुआ (इत् तिष्ठसि) निरन्तर विराजता है-विराजमान रह (ते पार्थिवः-न-अश्नाति) तेरी समानता को राजा भी नहीं प्राप्त कर सकता या नहीं खा सकता है ॥४॥
भावार्थ
तीसरा सोम वीर्य तथा वीर्यवान् ब्रह्मचारी है, जो संयम सदाचरणों द्वारा रक्षित और वेदविद्या से सम्पन्न गुरुओं द्वारा पालित होता है, जिसकी समानता राजा भी नहीं कर सकता। ब्रह्मचारी को देख कर राजा को मार्ग छोड़ देना चाहिए, यह शास्त्र में विधान है तथा उसका अन्यथा भक्षण भी नहीं कर सकता ॥४॥
विषय
ब्रह्मचारी वधूयू, सोम। उसके आश्रय पर गृहस्थ। ब्रह्मचारी का रूप।
भावार्थ
ब्रह्मचारी सोम जिसको आगे ‘वधूयू’ कहा जावेगा, जिसके आश्रय पर इस सूक्त में गृहस्थ का प्रतिपादन करना है, उसका वर्णन करते हैं। हे (सोम) सोम, वीर्य के पालक, विद्यागर्भ से उत्पन्न होने हारे, विद्वान् पुरुषों से प्रेरित ! उपदिष्ट ब्रह्मचारिन् ! (पार्थिकः) यह पृथिवी का मालिक राजा भी (ते न अश्नाति) तेरे इस महान् ज्ञान रूप धन का भोग नहीं कर सकता है। (आच्छद्-विधानैः गुपितः) जिस प्रकार चारों ओर से घेर लेने वाले प्रकोट या दीवारों, खाई आदि रचनाओं से सोम अर्थात् शासक राजा सुरक्षित होता है उसी प्रकार हे (सोम) वीर्यवान् ब्रह्मचारिन् ! तू भी (आच्छद्-विधानैः) सब ओर से सुरक्षित विद्या, विधान, सत्कर्म आचरणों को रखने वाले गुरुओं द्वारा (गुपितः) सुरक्षित होता है। और (बार्हतैः रक्षितः) बृहती नाम वेदवाणी के जानने वाले विद्वानों द्वारा सुरक्षित होता है। हे (सोम) ब्रह्मचारिन् ! (ग्राव्णाम्) ज्ञानोपदेष्टा विद्वानों के बीच में (इत्) ही (शृण्वन्) ज्ञान का श्रवण करता हुआ (तिष्ठसि) विराजता है। (ते) तेरे इस ज्ञानमय अंश का (पार्थिवः) पृथिवी का सामान्य जन (न अश्नाति) नहीं भोग करता है। वीर्यवान् ब्रह्मचारी पुरुष ही ‘सोम’ कहाता है, जैसा कि लिखा है—पुमान् वै सोमः स्त्री सुरा। तै० १। ३। ३। ३॥ (२) वीर्य पक्ष में—वीर्य की रक्षा वे पुरुष करते हैं जो ‘आच्छद्-विधान’ अर्थात् इन्द्रियों को सुरक्षित रखते हैं और ‘बार्हत’ अर्थात् वेद और ब्रह्म की उपासना करते हैं। जो गुरुजनों के अधीन विद्या का अभ्यास करते हैं, उनके इस ज्ञानमय ऐश्वर्य को कोई सामान्य जन वा राजा भी अपहरण नहीं कर सकता। फलतः इन्द्रिय दमन करने, वेद का अभ्यास और गुरुओं के पास विद्या लाभ करने वालों को वीर्य की रक्षा अवश्य करनी चाहिये।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
सोम का रक्षण
पदार्थ
[१] (आच्छद्विधानैः) = समन्तात् अपवारण के तरीकों से, अर्थात् हमारे पर सब ओर से जो वासनाएँ आक्रमण कर रही हैं, उनको दूर रखने के उपायों से (गुपित:) = यह सोम रक्षित होता है । यदि वासनाओं का आक्रमण चलता रहे, तो सोम के रक्षण का सम्भव नहीं होता। [२] (सोमः) = यह सोम [= वीर्य] (बार्हतैः) = वासनाओं के उद्धर्हण के द्वारा (रक्षितः) = रक्षित होता है। जैसे खेत में से एक किसान घास-फूस का उद्बर्हण कर देता है, इसी प्रकार जो व्यक्ति हृदयक्षेत्र में से वासनारूप घास का उद्बर्हण करता है, वही शरीर में सोम का रक्षण करनेवाला होता है । [३] हे सोम ! तू (इत्) = निश्चय से (ग्राव्णाम्) = ज्ञानी स्तोताओं की ज्ञान चर्चाओं को (शृण्वन्) = सुनता हुआ (तिष्ठति) = शरीर में स्थित होता है। जो मनुष्य ज्ञानप्रधान जीवन बिताता है, यह सोम उसकी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उसकी ज्ञानाग्नि को दीस करता है । इस प्रकार उपयुक्त हुआ हुआ सोम नष्ट नहीं होता । [४] (पार्थिवः) = पार्थिव भोगों में फँसा हुआ व्यक्ति (ते न अश्नाति) = तेरा सेवन नहीं करता । भोगासक्ति सोम के रक्षण की विरोधिनी है । ये पार्थिव वृत्तिवाले व्यक्ति तो सोमलता के रस के पान को ही सोम-पान समझते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये वासनाओं को दूर करना आवश्यक है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आच्छद्विधानैः-गुपितः) आच्छदन्ति यानि विधानानि तथाविधैः संयमरूपैः खलु यस्त्रातः (बार्हतैः-रक्षितः) बृहती वाक्-वेदवाक्सम्पन्नैराचार्यप्रभृतिभिः संरक्षितः (सोम) हे सोम-वीर्य ! “रेतो वै सोमः” [श० १।९।२।९] “सोमः वीर्यवत्तमः” [ऋ० १।९१ दयानन्दः] (ग्राव्णां शृण्वन्-इत् तिष्ठसि) विदुषामुपदेशं शृण्वन्नेव विराजसे (न ते पार्थिवः-अश्नाति) तव साम्यं राजापि न प्राप्नोति यद्वा त्वां न भक्षयितुं शक्नोति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Preserved by divine ordinances, protected by the measures of Brhat Samans, Soma is guarded safely by somapalas. O Soma, you abide somewhere in divinity hearing the roar of thunder and clouds, no one earthly can drink or experience the ecstasy of your celestial nature and identity.
मराठी (1)
भावार्थ
तिसरा सोम वीर्य व वीर्यवान ब्रह्मचारी आहे. जो संयम सदाचरणांद्वारे रक्षित व वेदविद्येने संपन्न गुरुद्वारे पालन केला जातो. ज्याची बरोबरी राजाही करू शकत नाही. ब्रह्मचाऱ्याला पाहून राजानेही (वाईट) मार्ग सोडला पाहिजे. हे शास्त्रात विधान आहे व त्याचे कोणी भक्षण करू शकत नाही. ॥४॥
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