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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा देवता - आदित्याः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो राज॑भ्य ऋत॒निभ्यो॑ द॒दाश॒ यं व॒र्धय॑न्ति पु॒ष्टय॑श्च॒ नित्याः॑। स रे॒वान्या॑ति प्रथ॒मो रथे॑न वसु॒दावा॑ वि॒दथे॑षु प्रश॒स्तः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । राज॑ऽभ्यः । ऋ॒त॒निऽभ्यः॑ । द॒दाश॑ । यम् । व॒र्धय॑न्ति । पु॒ष्टयः॑ । च॒ । नित्याः॑ । सः । रे॒वान् । या॒ति॒ । प्र॒थ॒मः । रथे॑न । व॒सु॒ऽदावा॑ । वि॒दथे॑षु । प्र॒ऽश॒स्तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो राजभ्य ऋतनिभ्यो ददाश यं वर्धयन्ति पुष्टयश्च नित्याः। स रेवान्याति प्रथमो रथेन वसुदावा विदथेषु प्रशस्तः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। राजऽभ्यः। ऋतनिऽभ्यः। ददाश। यम्। वर्धयन्ति। पुष्टयः। च। नित्याः। सः। रेवान्। याति। प्रथमः। रथेन। वसुऽदावा। विदथेषु। प्रऽशस्तः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के प्रशस्ताः स्युरित्याह।

    अन्वयः

    यो राजभ्य तनिभ्यश्चोपदेशं यं नित्याः पुष्टयो वर्द्धयन्ति स रेवान् वसुदावा प्रथमः प्रशस्तो विदथेषु रथेन विजयं याति ॥१२॥

    पदार्थः

    (यः) (राजभ्यः) न्यायप्रकाशकेभ्यः सभासद्भ्यः (तनिभ्यः) सत्यन्यायकर्त्रीभ्यो राज्ञीभ्यः (ददाश) दाशति ददाति (यम्) (वर्द्धयन्ति) (पुष्टयः) शरीरात्मबलानि (च) (नित्याः) शाश्वत्यो नीतयः (सः) (रेवान्) प्रशस्ता रायो विद्यन्ते यस्य सः (याति) प्राप्नोति (प्रथमः) आदिमः (रथेन) यानेन (वसुदावा) यो वसूनि ददाति सः (विदथेषु) विज्ञातव्येषु सङ्ग्रामादिषु व्यवहारेषु (प्रशस्तः) अत्युत्कृष्टः ॥१२॥

    भावार्थः

    ये पुरुषा यास्स्त्रियश्च पूर्णविद्याः स्युस्ते ताश्च न्यायाधीशा भूत्वा पुरुषाणां स्त्रीणां चोन्नतिं कुर्वन्तु ते ताश्च प्रशंसनीया विजयप्रदा विज्ञेयाः ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन प्रशस्त हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    (यः) जो राजा (राजभ्यः) न्यायप्रकाश सभासद्राजपुरुषों (च) और (तनिभ्यः) सत्य न्याय करनेवाली राणियों के लिये उपदेश (ददाश) देता है (यम्) जिसको (नित्याः) सनातन नीति तथा (पुष्टयः) शरीर आत्मा के बल को (वर्द्धयन्तु) बढ़ाते हैं (सः) वह (रेवान्) प्रशस्त ऐश्वर्यवाला (वसुदावा) धनों का दाता (प्रथमः) मुख्य कुलीन (प्रशस्तः) प्रशंसा को प्राप्त (विदथेषु) जानने योग्य सङ्ग्रामादि व्यवहारों में (रथेन) रथ से विजय को (याति) प्राप्त होता है ॥१२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष और जो स्त्री पूर्ण विद्यावाले हों, वे न्यायाधीश होकर पुरुष और स्त्रियों की उन्नति करें, वे सब प्रशंसा के योग्य विजय करनेवाले जानने चाहिये ॥१२॥

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    विषय

    धन के तीन प्रयोग

    पदार्थ

    १. [क] (यः) = जो (रेवान् धनवान्) = पुरुष (राजभ्यः) = राजाओं के लिए (ददाश) = कर के रूप में धन देता है । [ख] जो (ऋतनिभ्यः) = ॠत के नेताओं के लिए-युवकों को सन्मार्ग पर ले चलनेवाले उपाध्यायों व आचार्यों के लिए इसी प्रकार [ऋत= यज्ञ] लोकहित के कर्मों को करनेवालों के लिए देता है। [ग] (च) = और (यम्) = जिसको (नित्याः) = स्थिर (पुष्टयः) = पोषक पदार्थ (वर्धयन्ति) = बढ़ाते हैं, अर्थात् जो धनों का विनियोग जीवन के पोषक तत्त्वों को प्राप्त करने के लिए करता है- अर्थात् जो विलास में धनों का अपव्यय नहीं करता । २. (सः देवान्) = वह धनी (प्रथमः) = सबसे आगे (रथेन याति) = रथ से चलता है, अर्थात् इस धनी को जनसमूह में सम्मान प्राप्त होता है। यह (वसुदावा) = धनों का देनेवाला होता है और (विदथेषु प्रशस्तः) = यज्ञों में प्रशंसनीय होता है। यज्ञस्थलों में एकत्रित होनेवाले इसकी प्रशंसनीय शब्दों में चर्चा करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – धन हमें धन्य बनाता है यदि हम (क) उचित कर राजकोष में दें (ख) लोकहित में लगे हुए व्यक्तियों व संस्थाओं को इसे प्राप्त कराएँ (ग) तथा जीवन के पोषक तत्त्वों को प्राप्त करने में इसका व्यय करें।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( राजभ्यः ) राजा, गुणों विद्याओं में प्रकाशित पुरुषों और ( ऋतनिभ्यः ) सत्य मार्ग में ले जाने वाले उत्तम नायक पुरुषों और यज्ञ में, सत्य वचनानुसार परिणय करने वाली स्त्रियों को भी ( ददाश ) ज्ञानोपदेश प्रदान करता है ( यं ) जिसको ( नित्याः ) सदा स्थिर रहने वाली ज्ञाननीतियें और ( पुष्टयः च ) समृद्धियां भी ( वर्धयन्ति ) बढ़ाती हैं । ( सः ) वह ( रेवान् ) ऐश्वर्यवान् ( वसुदावा ) ऐश्वर्यों का देने वाला, ( विदथेषु ) ज्ञानों, यज्ञों और संग्रामों में ( प्रशस्तः ) गुण कर्मों द्वारा प्रशंसित ( रेवान् ) धनसम्पन्न होकर ( रथेन ) रथ से रथी के समान ( रथेन ) अपने रमणीण कार्य से ( प्रथमः ) सब से प्रथम ( याति ) आगे बढ़ता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ अदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष व ज्या स्त्रिया पूर्ण विद्यायुक्त असतात त्यांनी न्यायाधीश बनून पुरुष व स्त्रियांची उन्नती करावी. ते प्रशंसापात्र असून त्यांना विजयी जाणावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The ruler who liberally gives for the illustrious men of justice and for the leading lights of truth and righteousness, and whom strength and nourishment of body, mind and character constantly advance towards perfection, grows first in power and prestige and, well- provided with wealth and the spirit of generosity, admired and exhorted universally, moves forward in his chariot of fame as a leader in yajnic projects of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Light is thrown on the conduct of admired persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A ruler or State official guides the just public servants and their matching wives. The eternal policy and physical and spiritual force make him to grow. Such a prosperous man of good family gives wealth, and thus well admired he, scores victory in the dealings and battle-fields.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The State officials and their wives if they are well educated and deal justly, they are admired and always achieve success.

    Foot Notes

    (राजभ्यः) न्यायप्रकाशकेभ्य: सभासभ्द्: = For the State officials, who deal justly. (ऋतनिभ्यः ) सत्यन्यायकर्त्रीभ्यो राज्ञीभ्यः = For the wives matching in quality with their husbands. (रेवान्) प्रशस्ता रायो विद्यन्ते यस्य सः = Greatly wealthy. ( वसुदावा ) यो वसूनि ददाति सः = Givers of riches.

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