ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 8
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - आदित्याः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ति॒स्रो भूमी॑र्धारय॒न् त्रीँरु॒त द्यून्त्रीणि॑ व्र॒ता वि॒दथे॑ अ॒न्तरे॑षाम्। ऋ॒तेना॑दित्या॒ महि॑ वो महि॒त्वं तद॑र्यमन्वरुण मित्र॒ चारु॑॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः । भूमीः॑ । धा॒र॒य॒न् । त्रीन् । उ॒त । द्यून् । त्रीणि॑ । व्र॒ता । वि॒दथे॑ । अ॒न्तः । ए॒षा॒म् । ऋ॒तेन॑ । आ॒दि॒त्याः॒ । महि॑ । वः॒ । म॒हि॒ऽत्वम् । तत् । अ॒र्य॒म॒न् । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । चारु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीँरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम्। ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन्वरुण मित्र चारु॥
स्वर रहित पद पाठतिस्रः। भूमीः। धारयन्। त्रीन्। उत। द्यून्। त्रीणि। व्रता। विदथे। अन्तः। एषाम्। ऋतेन। आदित्याः। महि। वः। महिऽत्वम्। तत्। अर्यमन्। वरुण। मित्र। चारु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किंवत् किं कुर्युरित्याह।
अन्वयः
हे अर्य्यमन् वरुण मित्र यथा तेन धृता आदित्यास्तिस्रो भूमीरुत त्रीन् द्यून् धारयँस्तथा त्वं विदथे त्रीणि व्रता धर धारय च। यदेषामन्तर्महित्वं चारु स्वरूपं महि कर्म वा वर्त्तते तद्वोऽस्तु ॥८॥
पदार्थः
(तिस्रः) त्रिविधाः (भूमीः) (धारयन्) (धरन्ति) अत्राडभावः (त्रीन्) (उत) अपि (द्यून्) प्रकाशान् (त्रीणि) (व्रता) व्रतानि शरीरात्ममनोजानि धर्म्याणि कर्माणि (विदथे) वेदितव्ये व्यवहारे (अन्तः) मध्ये (एषाम्) लोकानाम् (तेन) सत्यस्वरूपेण ब्रह्मणा (अदित्याः) सूर्य्याः (महि) महत् (वः) युष्माकम् (महित्वम्) महत्त्वम् (तत्) (अर्यमन्) (वरुण) (मित्र) (चारु) ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः यथा भूमयः सूर्य्यादयो लोकाश्चेश्वरनियमेन नियन्त्रिता यथावत्स्वस्वक्रियाः कुर्वन्ति तथा मनुष्यैरपि विज्ञेयं वर्त्तितव्यं च। अस्मिन् जगत्युत्तममध्यमनिकृष्टभेदेन भूमिरग्निश्च त्रिविधोऽस्ति सूर्य्यलोकाः भूमिलोकतो महान्तः सन्तीति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य किसके तुल्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अर्य्यमन्) न्याय करनेहारे (वरुण) शान्तशील (मित्र) मित्रजन जैसे (तेन) सत्यस्वरूप परमेश्वर ने धारण किये (आदित्याः) सूर्यलोक (तिस्रः) तीन प्रकार की (भूमीः) भूमियों को (उत) और (त्रीन्) तीन प्रकार के (द्यून्) प्रकाशों को (धारयन्) धारण करते हैं वैसे आप (विदथे) जानने योग्य व्यवहार में (व्रता) शरीर आत्मा और मन से उत्पन्न हुए धर्मयुक्त (त्री) तीन प्रकार के कर्मों को धारण करो कराओ जो (एषाम्) इन सूर्य लोकों के (अन्तः) मध्य में (महित्वम्) महत्त्व (चारु) सुन्दर स्वरूप वा (महि) बड़ा कर्म है (तत्) वह (वः) आप लोगों का होवे ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो जैसे भूमि और सूर्य्यादि लोक ईश्वर के नियम से बंधे हुए यथावत् अपनी-अपनी क्रिया करते हैं, वैसे मनुष्यों को भी जानना और वर्त्ताव करना चाहिये। इस जगत् में उत्तम मध्यम और अधम तीन प्रकार की भूमि और अग्नि है तथा सूर्य्यलोक भूमिलोक से बड़े-बड़े हैं ॥८॥
विषय
स्वास्थ्य-शान्ति-दीप्ति
पदार्थ
१. मित्र, अर्यमा और वरुण ये क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक को धारण करते हैं । मित्र इन्द्रियों में असुरों [काम] के बनाये हुए किले को नष्ट करता है। वरुण हृदयान्तरिक्ष में बनाये हुए क्रोध के किले को तथा अर्यमा मस्तिष्क में बनाये हुए लोभ के किले को समाप्त करता है। इस प्रकार ये मित्र, अर्यमा और वरुण (तिस्त्रः भूमीः) = तीनों भूमियों को-प्राणियों के निवासस्थान भूत लोकों को (धारयन्) = धारण करते हैं। (उत) = और (त्रीन् द्यून्) = इन लोकों के तीन देवों को–अग्नि, विद्युत् व सूर्य को भी धारण करते हैं। शरीर में अग्नि को, हृदय में विद्युत् को तथा मस्तिष्क में सूर्य को ये धारण करते हैं। काम के विनाश से शरीर में अग्नितत्त्व ठीक रूप में रहता है, क्रोध के विनाश से हृदय में विद्युत्तत्त्व ठीक रूप में होता है और लोभ के विनाश से मस्तिष्क ज्ञानसूर्य से देदीप्यमान रहता है। (अन्तः विदथे) = शरीर के अन्दर चलनेवाले यज्ञ में (एषाम्) = इन मित्र, वरुण, अर्यमा के (त्रीणि व्रता) = तीन व्रत हैं। 'मित्र' शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करता है। 'वरुण' हृदय को क्रोधशून्य कर शान्ति देता है। 'अर्यमा' लोभ को दूर करके मस्तिष्क को दीप्ति प्राप्त कराता है। २. हे (आदित्या:) = देवो! (ऋतेन) = ऋत के कारण-सब कार्यों को ठीक व ठीक स्थान में करने के कारण (वः) = आपका (महि महित्वम्) = महान् महत्त्व है। हे (अर्यमन् वरुण मित्र) = अर्यमा, वरुण व मित्र देवो! आपका वह महत्त्व (चारु:) = बड़ा सुन्दर है। इनकी महिमा से जीवन भी सौन्दर्य से परिपूर्ण हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ –'मित्र, वरुण व अर्यमा' हमारे जीवनों में स्वास्थ्य शान्ति व दीप्ति को प्राप्त कराते हैं।
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
आदित्य गण ही ( तिस्रः भूमीः ) तीनों भूमियों को ( त्रीन् द्यून् उत ) और तीनों आकाशों को ( ऋतेन ) ऋत, सत्य बल वा तेज के द्वारा (धारयन्) धारण कर रहे हैं। अर्थात् अग्नि, वायु, और सूर्य तीनों ही भूमि अन्तरिक्ष और उत्तम आकाश तीनों को धारण करते हैं। उनको ( एषान् अन्तः ) इन तीनों लोकों में इनके ( त्रीणि व्रता ) तीन ही प्रकार के मुख्य २ कार्य हैं । हे ( आदित्याः ) तेजस्वी पुरुषो ! लोकों के धारण करने वाले प्रधान पुरुषो ! उनके समान ही ( वः ) आप लोगों का भी ( विदथे ) समस्त ज्ञान व्यवहार और परस्पर के राज्य ऐश्वर्य धनादि के प्राप्त करने या लेन देन के व्यवहार में ( ऋतेन ) सत्य के बल से ही ( महित्वम् ) महान् सामर्थ्य है । हे ( अर्यमन् ) न्यायकारिन् ! हे ( वरुण ) दुष्टवारक, सर्वश्रेष्ठ ! हे ( मित्र ) सखे ! ( तत् ) वह ( चारु ) उत्तम रीति से बना रहे । अर्यमा, वरुण और मित्र क्रम से सूर्य वायु और अग्नि या सूर्य मेघ और अन्न के समान प्रकाशप्रद, प्राणप्रद और जीवनप्रद होकर राष्ट्रप्रजा का पालन करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः॥ अदित्यो देवता॥ छन्दः- १,३, ६,१३,१४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ८, १२, १७ त्रिष्टुप् । ११, १६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ९, १० स्वराट् पङ्क्तिः॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी भूमी व सूर्य इत्यादी ईश्वराच्या नियमाने बंधित असून आपले कार्य यथायोग्य करतात, तसे माणसांनीही जाणावे, वागावे. या जगात उत्तम, मध्यम व अधम तीन प्रकारची भूमी व अग्नी आहेत व सूर्यलोक भूमीलोकाहून मोठमोठे आहेत. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Adityas, brilliant children of Aditi, radiant concentrations of indestructible energy, by the universal Law of Rtam, hold and sustain three terrestrial regions and three heavenly regions in the midst of which they observe threefold dynamics of existential energy in the field of karmic order. Aryaman, lord of action and justice, Varuna, lord of love and peace, and Mitra, friend of fraternity, that too is your holy grandeur and greatness in the mighty social order, threefold, three-level, for the body, mind and spirit of the human nation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The centres of inspirations are pointed out.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O dispenser of justice, peaceful, friendly persons ! as God, who is symbolic with the truth, holds the visible world, three-type earths and three-type lights, same way you should also hold three-type actions blended with body, mind and soul in order to seek worthwhile dealings. Let you have glory and beautiful appearance, through these visible worlds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. O persons ! as the visible world and earth act in accordance with Divine regulations, same way the human beings should know the universe in proper perspectives. There are three-type earths and fires, and that the sun-world is bigger than the earth.
Foot Notes
(व्रता) व्रतनि शरीरात्ममनोजानि धर्म्याणि कर्माणि = The actions born out of body, mind and soul. (विदथे) वेदितव्ये व्यवहारे = In proper dealings. (महित्वम् ) महत्वम् = The significance.
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